हज व उमरे में ज़्यादा पेश आने वाले
चालीस मसले

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा हाज शेख मुहम्मद
फ़ाज़िल लंकरानी
(मुद्दा ज़िल्लाहुल आली)
के फ़तवों के मुताबिक़

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्हीम

  1. मुसाफ़िर को मक्के और मदीने दोनों मौजूदा शहरों में इख़्तियार है कि वह अपनी नमाज़ को क़स्र व पूरी पढ़ सकता है।
  2. बेहतर है कि मोमेनीन मस्जिदे नबवी व मस्जिदुल हराम में अहले सुन्नत की जमाअत में शिरकत करें और इन दोनों मक़ाम पर जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ने की फ़ज़ीलत को हाथों से न खोयें, और जब नमाज़े जमाअत शुरू हो जाये तो न मस्जिद से खारिज हों और न ही किसी दूसरे काम में मशगूल हों।
  3. नमाज़े जमाअत में अगर मुमकिन हो तो इस बात की रिआयत की जाये कि ऐसी जगह पर खड़े हो जहाँ से जमाअत की सफ़ों से भी मुत्तसिल रहें और उस चीज़ पर सजदा भी कर सकें जिस पर सजदा करना सही हो जैसे पत्थर के फ़र्श वग़ैरह पर और मर्द व औरत में कोई फ़र्क़ नही है। लेकिन अगर न जानतें हो और इत्तेफ़ाक से फ़र्श पर हों, या ऐसी जगह हों जहाँ से इत्तेसाल न हो, या छत पर हों और जगह बदलना इख़्तेलाफ़, तौहीन व बद गुमानी का सबब बने, या नाचार हो कि सफ़ों को पूरा करने के लिए फ़र्श पर जायें, तो इस सूरत में इशकाल नही है और नमाज़ सही है।  
  4. फ़ुरादा नमाज़ पढ़ते वक़्त, इख़्तियार की हालत में अगर पत्थर पर सजदा कर सकते हों तो, फ़र्श पर सजदा करना सही नही है। इस मसले में कोई फ़र्क़ नही है चाहे नमाज़ वाजिब हो मुस्तहब रोज़ा-ए-मुबारक में पढ़ रहे हों या किसी दूसरे मक़ाम पर।
  5. मक्के और मदीने की मस्जिदों में अगर सजदागाह, पंखे, चटाई, काग़ज़ और ऐसी ही दूसरी चीज़ों पर सजदा करना, इख़्तेलाफ़ व शियत पर तोहमत का सबब बने तो जायज़ नही है।
  6. मस्जिदुल हराम व मस्जिदुन नबी में जो तरह तरह के पत्थर लगे हुए उन पर सजदा करना जायज़ है।
  7. क्योँकि मस्जिदुल हराम में ऊपरी मंज़लि पर और मस्जिदे नबवी में छत के ऊपर से नमाज़े जमाअत के लिए इत्तेसाल नही हो पाता, लिहाज़ा नमाज़े जमाअत के वक़्त अपने इख़तियार से वहाँ नही जाना चाहिए। लेकिन अगर, इत्तेफ़ाक़न नमाज़े जमाअत के वक़्त वहाँ पर मौजूद हों तो वहीँ से इक़्तदा करें, नमाज़ सही है।
  8. अगर कोई नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद में जाये और देखे कि अहले सुन्नत की जमाअत तो तमाम हो गई है लेकिन अभी सफ़ें अपनी हालत पर बाक़ी है तो मुस्तहब है कि अपनी नमाज़ के लिए अजान व इक़ामत कहे। और यही हुक्म उस इंसान के लिए है, जो अहले सुन्नत के साथ नमाज़े जमाअत पढ़ने के बाद   अपनी नमाज़ को एहतियातन दुबारा पढ़ना चाहे।  
  9. ज़ियारत के लिए ग़ुस्ल करना मुस्तहब है लेकिन वह वज़ू का काम नही करता, लिहाज़ा नमाज़ के लिए वुज़ू करना चाहिए।
  10. क्योँकि मस्जिदुल हराम में नमाज़े जमाअत दायरे की शक्ल में मुनअक़िद होती है लिहाज़ा मोमेनीन को चाहिए कि ऐसी जगह पर खड़े हों, जहाँ यह कहा जा सके कि इमाम के पीछे खड़े है। अगर तक़य्ये के अलावा इमाम के सामने की तरफ़ या बराबर में खड़े हों तो नमाज़ को दुबारा पढ़ना चाहिए।
  11. क्योँकि अहले सुन्नत के यहाँ अज़ान व इक़ामत में फ़ासला पाया जाता लिहाज़ा नमाज़े मग़रिब की जमाअत में शिरकत करने में कोई हरज नही है नमाज़ सही है (चूँकि मग़रिब का वक़्त हो जाता है)
  12.  जुमे के दिन सुबह की नमाज़ में इमामे जमाअत मामूलन आयते सजदा पढ़ता है और क़राअत के बीच में ही सजदा करता है, इस सूरत में अगर यह अमल पेश नमाज़ की इत्तबा में किया जाये तो नमाज़ सही है। और अगर तक़य्ये में नही है तो एहतियात यह है कि इस सजदे को नमाज़ के बाद अंजाम दे। लेकिन अगर सहवन सजदे की जगह रुकूअ में चला जाये तो नमाज़ बातिल है और नमाज़ के   दुबारा पढ़ना चाहिए।
  13. मस्जिदे नबवी में एक नमाज़ पढ़ने का सवाब दस हज़ार नमाज़ों के बराबर व मस्जिदुल हराम में एक नमाज़ पढ़ने का सवाब दस लाख नमाज़ों के बराबर है, लिहाज़ जहाँ तक मुमकिन हो नमाज़ इन दोनो मंस्जिदों में ही पढ़े, इन दोनों मस्जिदों के वह हिस्से जो अभी बनायें गये हैं उन में नमाज़ पढ़ने का सवाब व फ़ज़ीलत भी यही है।
  14. मुस्तहाज़ा औरत के मस्जिदुल हराम व मस्जिदुन नबी में जाने, दूसरी तमाम मसाजिद में ठहरने और उन सूरोंह को पढ़ने में जिन में वाजिब सजदे हैं, कोई इशकाल नही है। जबकि एहतियाते मुस्तहब यह है कि इन तमाम कामों को करने के लिए उसने अपना वाजिब ग़ुस्ल कर लिया हो।
  15. मुसाफ़िर मदीना-ए-मुनव्वरा में तीन दिन मुस्तहब रोज़े रख सकता है और एहतियात यह है कि यह तीन दिन बुध, जुमेरात व जुमा हों। लेकिन अगर उसके ज़िम्मे कुछ क़ज़ा रोज़े भी हों तो, वह क़ज़ा की नियत से रोज़े नही रख सकता और न ही किसी और के क़ज़ा रोज़े रख सकता है।
  16. अगर कोई रोज़े से हो और वह अतराफ़ की ज़ियारत के लिए चला जाये तो कोई हरज नही है, क्योँकि वह मक़ामात शरई मसाफ़त से कम फासले पर वाक़े हैं।
  17. अगर किसी इंसान के जूते खोये जायेँ तो वह वहाँ पर पड़े हुए दूसरे जूतो को नही पहन सकता, जब तक उसे यह यक़ीन न हो कि उसका मालिक राज़ी हो जायेगा या उसने इनको छोड़ दिया है।
  18. मोमेनीन पर लाज़िम है कि वहाँ पर उन कामों से परहेज़ करें जो मज़हब की कमज़ोरी और दीन के रहबरों, आइम्मा-ए-अतहार अलैहिमु अस्सलाम व शियों की बेएहतेरामी व ज़िल्लत का सबब बने और ग़ैर लोग उनको अपनी हक़्क़ानियत व शियों की सरकोबी के लिए सनद बनायें। और अगर अवाम के कुछ लोग ग़फ़लत की बिना पर उन कामों को अंजाम दें तो उनको मुहब्बत के साथ समझायें। इन में से कुछ काम इस तरह हैः

 पैग़म्बरे अकरम (स.) की ज़रीहे मुबारक और हरम के दरवाज़ों पर हाथ फेरना और उनको बोसा देना, पैग़म्बरे अकरम (स.) की ज़रीह या जन्नतुल बक़ी की जालियों से अपनी चीज़ों को मस करना, पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की ज़रीहे मुबारक या जन्नतुल बक़ी में अरीज़ा या पैसे डालना, जन्नतुल बक़ी या कब्रिस्ताने अबुतालिब के अन्दर या बराबर में नमाज़ पढ़ना, जन्नतुल बक़ी की जालियों में मन्नती डोरियाँ बाधना, जन्नतुल बक़ी या मक्के व मदीने के दिगर मुक़द्दस मक़ामात से ख़ाक उठाना,कब्रिस्ताने जन्नतुल बक़ी के पीछे नमाज़ पढ़ना, अज़ान व नमाज़ के वक़्त जन्नतुल बक़ी के पीछे या दूसरे मक़ामात पर जमा होना, बाज़ारों, सड़कों व दुकानों पर औरतों का पर्दे की रिआयत न करना और इसी तरह के दूसरे काम।

  1. जो अपने अव्वले साले खुमुसी [1] के बारे में न जानता हो लेकिन वह अपनी तनखवाह व तदरीजी आमदनी से जिसे अभी एक साल पूरा न हुआ हो कुछ रक़म जमा करे और उसी साल हज, उम्रे या किसी और काम के लिए ख़र्च करे तो उस पर ख़ुमुस वाजिब नही है।
  2.  जो रक़म हजे वाजिब के लिए जमा करते हैं, अगर उसी साल की आमदनी से हज के लिए नाम लिखायें तो उस रक़म पर ख़ुमुस वाजिब नही है चाहे हज के लिए उसकी बारी अगले साल ही क्योँ न आये। लेकिन अगर जमा की गई रक़म पर खुमुस वाजिब था मसलन उस रक़म से पैसे लिये गये हो जिसका अभी ख़ुमुस न निकला हो या वह रक़म जिस पर एक साल गुज़र गया हो और बाद में उस रक़म को हज के लिए जमा कर दिया गया हो तो ऐसी रक़म का ख़ुमुस देना वाजिब है चाहे उसी साल हज के लिए नाम लिखायें।
  3. अगर कोई हज्जे मुसतहबी या उमरह-ए-मुफ़रदा के लिए रक़म जमा करे और उसकी बारी अगले साल आये तो उस रक़म का ख़ुमुस देना चाहिए क्योँकि मऊना नही हुआ है, इसी तरह अगर किसी ने अपना वाजिब हज कर लिया हो और अब वह इसको एहतियातन दुबारा करना चाहता हो और उसने इसी नियत से रक़म जमा की हो और उसकी बारी अगले साल हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि उसका ख़ुमुस अदा करे।
  4. हाइज़ औरत मस्जिद को पार करते वक़्त मोहरम हो सकती है, लेकिन उसे मस्जिद में नही रुकना चाहिए और यह इस सूरत में ही हो सकता है जब मस्जिद के दो दरवाज़े हों कि एक से दाख़िल हो कर दूसरे से खारिज हो जाये। और अगर ऐसा नही है तो मस्जिद के बराबर में मोहरम होना सही है। इसी तरह मदीने में भी नज़्र के ज़रिये मोहरम हो सकती है।
  5. जो लोग नज़्र के ज़रिये मदीने से मोहरम होना चाहते हैं, उनको नज़्र का यह सिग़ा पढ़ना चाहिए लिल्लाहि अलैया अन ओहरिमा मिन अलमदीनति। या हिन्दी में कहे अल्लाह के लिए मेरे ऊपर यह लाज़िम है कि मदीने में मोहरम हूँ और उमरह-ए- मुफ़रदा को अंजाम दूँ।
  6. अगर इत्तेफ़ाक़न मस्जिदे शजरह का दर बन्द हो या औरत वहाँ पर हाइज़ हो जाये और मदीने में नज़्र के ज़रिये मोहरम न हुए हों तो, मदीने की तरफ़ इतनी दूर वापस पलटें कि यह कहा जा सके कि यह क़ब्ल अज़ मीक़ात हैं। और वहाँ पर नज़्र के ज़रिये मोहरम हों और इस सूरत में नज़्र का सिगा यह पढ़ा जायेगा लिल्लाहि अलैया अन ओहरिमा मिन हाज़ल मकानि या हिन्दी में इस तरह कहे अल्लाह के लिए मेरे ऊपर यह लाज़िम है कि मैं इस जगह पर मोहरम हूँ और उमरह-ए-मुफ़रदा अंजाम दूँ। नज़्र के इस सिग़े को पढ़ने के बाद उस जगह से अहराम वाजिब हो जायेगा लिहाज़ उसी मक़ाम पर नियत करके लिबासे अहराम पहन कर तलबिया पढ़ना चाहिए।
  7. जिस औरत का शौहर उसके साथ हो उसे चाहिए कि शौहर की इजाज़त से नज़्र करे। लेकिन अगर शौहर साथ न हो तो इज़्न लाज़िम नही है। क्योँकि जब सफ़र व आमाल की इजाज़त दी है तो इससे मुताल्लिक़ जो भी काम हैं उन सब की भी इजाज़त है।  
  8. ग़ुस्ले अहराम मुस्तहब है लेकिन वह वुज़ू की किफ़ायत नही करता लिहाज़ा नमाज़ पढ़ने के लिए वुज़ू करना जरूरी है।
  9. अहराम की नियत का ज़बान से कहना सिर्फ़ मुस्तहब है, ज़रूरी नही है, लेकिन अगर कोई चाहे कि इस नियत को अपनी ज़बान पर जारी करे तो अहराम का लिबास पहन ने के बाद इस तरह कहे “ उमरह-ए- मुफ़रदा या उमरह-ए- तमत्तु अंजाम देता हूँ क़ुरबतन इला अल्लाह। ” इसके बाद तलबियाह पढ़े।
  10. एहतियाते मुस्तहब यह है कि औरते फ़क़त नियत व तलबियह कहते वक़्त बग़ैर सिले दो लिबासे अहराम पहने।
  11. तलबियह यह है कि इंसान कहे – लब्बैक, अल्लाहुम्मा लब्बैक, लब्बैका ला शरीका लका लब्बैक। इसको एक बार कहने के बाद इंसान मोहरम हो जाता है और यह सही है। एहतियाते मुस्तहब यह है कि इसके बाद यह कहे- इन्नल हम्दा वन्नेअमता लका वल मुलका ला शरीका लका लब्बैक।
  12. अगर औरतों की आवाज़ मर्दों के कानों तक पहुँच रही हों तो मुनासिब है कि तलबियह को इतनी   आवाज़ से पढ़े कि नामहरम उनकी आवाज़ न सुन सकें। और अगर उनकी आवाज़ में कशिश पाई जाती हो तो एहतियात यह है कि तलबियह आहिस्ता कहें।
  13. रात के वक़्त छतदार गाड़ी में चलने में न कोई हरज है और न ही कोई कफ़्फ़ारा।
  14. जो उमरे के लिए मस्जिदे तनईम में मोहरम हो वह दिन में भी छतदार गाड़ी में बैठ कर मस्जिदुल हराम तक जा सकता है। (क्योँकि तनईम शहरे मक्का का एक महल्ला है)
  15. अहराम की हालत में सिली हुई ऐसी चप्पल जो पूरे पैर को न ढकती हो, सिली हुई हमयानी, बैल्ट, घड़ी के फ़ीते, आँत उतरने के मरज़ में बाँधी जाने वाली पेटी, पानी की बोतल व दूसरी सिली हुई ऐसी छोटी चीज़ें जिनको लिबास न कहा जाता हो, मर्दों के लिए उनके इस्तेमाल में न कोई हरज है और न ही कफ़्फ़ारा।
  16. अहराम में जो चीज़ें हराम हैं अगर उनको मासला जानते हुए अदमन (जान बूझ कर) अंजाम दे तो कफ़्फ़ारा वाजिब है और अगर उनको मसला न जानने की बिना पर या सहवन (भूले से) अंजाम दे तो कफ़्फ़ारा वाजिब नही है।
  17. वाजिब तवाफ़ व सई को क़तआ करना जायज़ है लेकिन इसमें कराहियत पाई जाती है। लेकिन अगर क़तआ करके दुबारा शुरू से अंजाम दिया जाये तो यह जायज़ व सही है। लेकिन मवालात उरफ़ी तौर पर ख़त्म न होने पाये और इसमें भी कोई फ़र्क़ नही है कि दूसरे दौर से छोड़ा जाये या किसी और दौर से।
  18. अगर वाजिब तवाफ़ या सई के किसी एक शौत को बीच में छोड़ दिया जाये और मवालात के टूटने से पहले दूसरा एक पूरा शौत अंजाम दे और बाक़ी शौतों को पूरा करे तो तवाफ़ व सई सही है।
  19. जब भीड़ ज़्यादा हो और अक्सर हाजियों के लिए हद ( बैत व मक़ाम के बीच) में तवाफ़ करना दुशवारी व हरज का सबब हो, और ज़रूरत इक़तज़ा कर रही हो और सब्र करना भी ज़हमत का सबब हो तो क़रीब से करीब की रिआयत करते हुए हद से बाहर तवाफ़ सही है।
  20.  अगर कोई सही क़राअत करने या कुछ इख़्तियारी आमाल को अंजाम देने से माज़ूर हो तो वह तबर्राअन हज या उमरह-ए-मुस्तहबी को किसी ग़ैर के लिए यहाँ तक कि आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिमु अस्सलाम की नियाबत में अंजाम दे सकता है।

बल्कि अगर हज या उमरह-ए- मुस्तहबी के लिए अजीर बने और अजीर बनाने वाला जानता भी हो कि यह माज़ूर है तब भी कोई हरज नही है और उसकी नियाबत सही है।

  1. हर इंसान, चाँद के हर महीने में अपनी तरफ़ से फ़क़त एक उमरह अंजाम दे सकता है। लेकिन दूसरे अलग अलग अफ़राद की नियाबत में बहुतसे उमरे अंजाम दे सकता है।
  2. वह रतूबत जो कभी कभी मस्जिदुल हराम या मस्जिदुन नबी में दिखाई देती है तहारत के हुक्म में है और यहाँ एहतियात का मक़ाम भी नही है।

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की एक रिवायत में है किः

1.         हज व उमरह आखेरत के बाज़ारों में से दो बाज़ार हैं......

2.         जिसने अपने वाजिबह हज को अंजाम दिया उसने अपनी गर्दन से आग की ज़ंजीर को खोल दिया.....

वसाइलुश शिया जिल्द 8 पेज न. 87 हदीस न. 2 व पेज न. 90 हदीस न. 13

तमाम तारीफ़ें अल्लाह के लिए है जो आलमीन का रब है और दरूद व सलाम हो हज़रत मुहम्मद व आपकी आले पाक पर ।

[1] अव्वले साले ख़ुमुसी उस वक़्त को कहते हैं जब इंसान के हाथ में पहली तनखवाह या पहली आमदनी आये।