सलामुन अलैकुम
बाद सलाम के अर्ज़ है कि आपके कुछ मुक़ल्लिद आपकी ज़ियारत का शरफ़ हासिल नही कर पाते बल्कि अपने इलाक़े में मौजूद उलमा के पास जाकर अपने माल का हिसाब करके उन्हें शरई रक़म दे देते हैं, लेकिन वह आपकी रसीद उन्हें नही देते बल्कि कभी अपनी रसीद देते हैं और कभी दूसरे मराजए कराम की रसीद दे देते हैं। क्या इस तरह उन्हें रक़मे शरई देने से इंसान अपनी ज़िम्मेदारी से सुबुक दोश हो जाता है ? इस सूरत में आपके मुक़ल्लिदों की क्या ज़िम्मेदारी है ?
अल्लाह आपके साये को तमाम मुसलमानों के सरों पर बाक़ी रखे।
आपके कुछ मुक़ल्लिद
सलाम व तहिय्यत के बाद अर्ज़ है कि इस बात पर तवज्जोह करते हुए कि होज़े इल्मिया क़ुम, इस्फ़हान, ख़ुरासान और तीन सौ से ज़्यादा छोटे छोटे होज़े इल्मिया हमारी तरफ़ से दी जाने वाली महाना रक़म से अपने ख़र्च का एक हिस्सा पूरा करते है। समाज में फैली गरानी के इस दौर में होज़े इल्मिया क़ुम के तालिबे इल्म जिनको दूसरे तमाम होज़ाहाते इल्मिया से ज़्यादा वज़ीफ़ा मिलता है, उनका वज़ीफ़ा भी तमाम दफ़ातिर से मिलाकर से 5000, रू. ज़्यादा नही होता, वोह भी होज़े इल्मिया में तीस साल पढ़ने के बाद, लिहाज़ा ग़लत मुसालेहत और ग़लत बख़्शिश मर्ज़ी ए ख़ुदा, रसूल और इमाम नही है। अगर हमारा कोई मुक़ल्लिद वाजिब शरई रक़म को हमारी रसीद लिये बग़ैर किसी को दे देता है, तो वह अपनी शरई ज़िम्मेदारी से सुबुक दोश नही है।
मुहम्मद फ़ाज़िल लंकरानी