544. मैयित को तीन ग़ुस्ल देने वाजिब हैं। पहला ग़ुस्ल उस पानी से जिसमें बेरी के पत्ते मिले हों, दूसरा उस पानी से जिसमें काफ़ूर मिला हो और तीसरा ख़ालिस पानी से।
545. बेरी के पत्ते और काफ़ूर को न तो इतना ज़्यादा मिलाना चाहिए कि पानी मुज़ाफ़ हो जाये और न इतना कम मिलाया जाये कि यह न कहा जा सके कि इस पानी में बेरी व काफ़ूर मिला है।
546. अगर बेरी और काफ़ूर इतनी मिक़दार में न मिल सकें जितने की ज़रूरत है तो एहतियाते वाजिब यह है कि जितनी तादाद में मुमकिन हो पानी में डाल दे। लेकिन इतना कम भी न होना चाहिए कि उसे काफ़ूर या बेरी मिला पानी न कहा जा सके।
547. अगर कोई इंसान हज का एहराम बाँधने के बाद सफ़ा व मरवा के दरमियान सई करने से पहले मर जाये तो उसे काफ़ूर मिले पानी से ग़ुस्ल नही देना चाहिए, बल्कि उसके बदले उसे ख़ालिस पानी से गुस्ल देना चाहिए। यही हुक्म उस इंसान के लिए भी है जो उमरे के एहराम में हो और बाल कटवाने से पहले मर जाये।
548. अगर बेरी और काफ़ूर या उनमें से कोई एक न मिल सके या उसका इस्तेमाल जायज़ न हो, मसलन वह ग़स्बी हो तो एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि इनमें से हर उस चीज़ के बदले जिसका मिलना नामुमकिन हो, मैयित को ख़ालिस पानी से ग़ुस्ल दे।
549. मैयित को ग़ुस्ल देने वाले इंसान के लिए ज़रूरी है कि वह मुसलमान शिया इसना अशरी, अक़्लमंद, और एहतियाते वाजिब की बिना पर बालिग़ हो और ग़ुस्ल के मसाइल को भी जानता हो।
550. मैयित को ग़ुस्ल देने वाले इंसान के लिए ज़रूरी है कि वह क़ुरबत की नियत करे यानी ग़ुस्ल को अल्लाह के हुक्म पर अमल करने की नियत से अंजाम दे और अगर वह तीसरे ग़ुस्ल के तमाम होने तक इसी नियत पर बाक़ी रहे तो यह काफ़ी है और अलग अलग नियत करने की ज़रूरत नही है।
551. मुसलमान के बच्चे को ग़ुस्ल देना वाजिब है, चाहे वह ज़िना के ज़रिये ही पैदा हुआ हो। काफ़िर और उसकी औलाद का ग़ुस्ल, कफ़न और दफ़न जायज़ नही है। जो इंसान बचपन से ही पागल हो और पागलपन की हालत में ही बालिग़ हुआ हो तो अगर उसके माँ, बाप, दादा, दादी या इनमें से कोई एक मुसलमान हो उसे ग़ुस्ल देना चाहिए है और अगर उनमें से कोई भी मुसलमान न हो तो उसे ग़ुस्ल देना जायज़ नही है।
552. अगर कोई बच्चा चार महीने या इससे ज़्यादा का होकर साक़ित हो जाये तो उसे ग़ुस्ल देना ज़रूरी है। लेकिन अगर चार महीने का पूरा न हो तो उसे कपड़े में लपेट कर बग़ैर ग़ुस्ल दिये दफ़्न कर देना चाहिए।
553. अगर औरत मर्द को और मर्द औरत को ग़ुस्ल दे तो ग़ुस्ल बातिल है, लेकिन बीवी अपने शौहर को और शौहर अपनी बीवी को ग़ुस्ल दे सकते हैं। जबकि एहतियात मुस्तहब यह है कि बीवी शौहर को और शौहर बीवी को ग़ुस्ल न दे।
554. मर्द तीन साल से कम की लड़की को और औरत तीन साल से कम के लड़के को ग़ुस्ल दे सकते है।
555. अगर मर्द की मैयित को ग़ुस्ल देने के लिए कोई मर्द न मिल सकें तो उसकी रिश्तेदार महरम औरतें मसलन माँ, बहन, फ़ूफ़ी ख़ाला या वह औरतें जो दूध पिलाने के सबब उसकी महरम हो गई हों, लिबास के नीचे से उसे ग़ुस्ल दे सकती हैं। इसी तरह अगर किसी औरत की मैयित को ग़ुस्ल देने के लिए कोई औरत न हो तो उसके रिशतेदार महरम मर्द या रिज़ायत (दूध पिलाने) के सबब उसके महरम बनने वाले मर्द लिबास के नीचे से उसे ग़ुस्ल दे सकते हैं।
556. अगर मैयित और ग़ुस्ल देने वाला दोनों मर्द या दोनों औरतें हों तो बेहतर है कि शर्मगाह के अलावा मैयित का पूरा बदन बरैहना हो।
557. मैयित की शर्मगाह पर नज़र डालना हराम है, और अगर ग़ुस्ल देने वाला उस पर नज़र डाले तो वह गुनाहगार है, लेकिन इससे ग़ुस्ल बातिल नही होता।
558. अगर मैयित के ज़िस्म का कोई नजिस हो तो उस हिस्से को ग़ुस्ल देने से पहले उसका पाक करना ज़रूरी है। जबकि एहतियाते वाजिब यह है कि ग़ुस्ल शुरू करने से पहले मैयित का तमाम जिस्म पाक हो।
559. ग़ुस्ले मैयित ग़ुस्ले जनाबत की तरह है और एहतियाते वाजिब यह है कि जब तक मैयित को ग़ुस्ले तरतीबी देना मुमकिन हो, ग़ुस्ले इरतेमासी न दिया जाये। लेकिन ग़ुस्ले तरतीबी में मैयित के बदन के तीनों हिस्सों में से हर हिस्से को कसीर पानी में डुबाना जायज़ है।
560. जो हैज़ या जनाबत की हालत में मर जाये उसे ग़ुस्ले हैज़ या ग़ुस्ले जनाबत देना ज़रूरी नही है, बल्कि उसके लिए ग़ुस्ले मैयित काफ़ी है।
561. मैयित को ग़ुस्ल देने की उजरत लेना जायज़ नही है। लेकिन ग़ुस्ल देने के इब्तदाई कामों की उजरत लेना हराम नही है।
562. अगर पानी मैयस्सर न हो या उसके इस्तेमाल में कोई मजबूरी हो तो ज़रूरी है कि हर ग़ुस्ल के बदले मैयित को एक तयम्मुम कराया जाये।
563. जो इंसान मैयित को तयम्मुम करा रहा हो उसे चाहिए कि अपने दोनों हाथ ज़मीन पर मारे और मैयित के चेहरे व हाथों की पुश्त पर फेरे। यह ज़रूरी नही है कि मैयित को उठा कर उसके हाथ पीछे से उसके चेहरे पर मले या सामने से उसके हाथों पर हाथ मले, बल्कि अगर आम तौर से जिस तरह चेहरे व हाथों पर हाथ मले जाते हैं, उस तरह मले जायें तो काफ़ी है। एहतियाते वाजिब यह है कि अगर मुमकिन हो तो मैयित के हाथों से भी उसे तयम्मुम कराया जाये।