कफ़न के अहकाम

564.     मुसलमान की मैयित को तीन कपड़ों से कफ़नाना ज़रूरी है, जिन्हे लुंग, क़मीस और चादर कहा जाता है।

565.  लुंग ऐसी हो जो नाफ़ से घुटनों तक तमाम बदन के छुपा ले और बेहतर यह है कि लुंग ऐसी हो जो सीने से पाँव के नीचे तक पहुँचे और एहतियाते वाजिब की बिना पर क़मीस ऐसी होनी चाहिए जो काँधों के सिरों से आधी पिंडलियों तक के तमाम हिस्से को छुपा ले और बेहतर यह है कि पैरों के नीचे तक तक पहुँचे। चादर की लम्बाई इतनी होनी चाहिए कि मैयित को उसमें लपेटने के बाद सर और पैरों की तरफ़ उसमें गिराह दे सकें और चौड़ाई इतनी होनी चाहिए कि उसका एक किनारा दूसरे किनारे पर आ जाये।

566.  अगर मैयित के वरसा बालिग़ हों और इजाज़त दें कि वाजिब कफ़न से ज़्यादा, कफ़न की वह मिक़दार जो इससे पहले मसले में बयान की गई है, उनके हिस्से से लेलें तो इसमें कोई हरज नही है। यह भी बईद नही है मैयित की शान के मुताबिक़ कफ़न की मिक़दार को उसके अस्ल माल से लिया जाये। अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि वाजिब मिक़दार से ज़्यादा कफ़न और इसी तरह कफ़न की वह मिक़दार जो एहतियातन लाज़िम है, नाबालिग़ वारिसों के हिस्से से न ली जाये।  

567.  अगर किसी ने वसीयत की हो कि मुस्तहब कफ़न की मिक़दार, जिसका ज़िक्र दो मसले पहले हुआ है, उसके तिहाई माल से ली जाये या यह वसीयत की हो कि उसका तिहाई माल खुद उस पर ख़र्च किया जाये, लेकिन किन कामों पर ख़र्च की जाये उनका ज़िक्र न किया हो, या सिर्फ़ उसके कुछ हिस्से के मसरफ़ को मुऐयन किया हो तो मुस्तहब कफ़न उसके तिहाई माल से लिया जा सकता है।

568.  औरत के कफ़न की ज़िम्मेदारी शौहर पर है, चाहे औरत के पास अपना माल भी हो। इसी तरह अगर औरत को, उस तफ़्सील के मुताबिक़, जो तलाक़ के अहकाम में बयान की जायेगी, तलाक़े रजई दी गई हो और वह इद्दत ख़त्म होने से पहले मर जाये तो शौहर के लिए ज़रूरी है कि उसे कफ़न दे, और अगर शौहर बालिग़ न हो या दीवाना हो तो शौहर के वली को चाहिए कि उसके माल से औरत को कफ़न दे।

569.  मैयित को कफ़न देना उसके रिशतेदारों पर वाजिब नही है, चाहे उसकी ज़िन्दगी में उसके ख़र्च की ज़िम्मेदारी उनके ऊपर वाजिब रही हो।

570.  एहतियात वाजिब यह है कि कफ़न के तीनों कपड़ों में से हर कपड़ा इतना बारीक न हो कि उसके नीचे से मैयित का जिस्म नज़र आये।

571.  कफ़न मुबाह होना चाहिए यानी ख़ुद मैयित के माल से हो, या दूसरे लोगों ने उसे हलाल माल से लिया हो और वह अपनी मर्ज़ी से उसे मैयित को कफ़नाने के लिए दें। 

572.  ग़स्ब की हुई चीज़ का कफ़न देना जायज़ नही है अगरचे कफ़नाने के लिए कोई दूसरी चीज़ भी मौजूद न हो। अगर मैयित का कफ़न ग़स्बी हो और उसका मालिक राज़ी न हो तो वह कफ़न उसके बदन से उतार लेना चाहिए, चाहे उसे दफ़्न भी कर दिया गया हो।

573.  मैयित को मुर्दार की खाल का कफ़न देना जायज़ नही है, लेकिन अगर कफ़न देने के लिए कोई और चीज़ मौजूद न हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि मैयित को उसी में कफ़ना दे।  

574.  मैयित को नजिस चीज़ या ख़ालिस रेशमी कपड़े या उस कपड़े का कफ़न देना जो सोने के तारों से बनाया गया हो, जायज़ नही है। लेकिन मजबूरी की हालत में कोई हरज नही है।

575.  मैयित को किसी ऐसे कपड़े में कफ़नाना इख़्तियार की हालत में जायज़ नही है, जो ख़ालिस रेशम या किसी हराम गोशत जानवर के बालों से बना हो। लेकिन अगर हलाल गोश्त जानवर की ख़ाल को इस तरह तैयार किया जाये कि उसे लिबास कहा जासके तो या अगर कफ़न हलाल गोश्त जानवर के रुवें या बलों से बना हुआ हो तो उसमें कफ़नाने में कोई हरज नही है। जबकि एहतियाते मुस्तहब यह है कि मैयित को इन दोनों में भी न कफ़नाया जाये।   

576.  अगर मैयित का कफ़न उसकी अपनी निजासत से या किसी दूसरी निजासत से नजिस हो जाये, तो अगर कफ़न के बर्बाद होने का ख़तरा न हो तो जितना हिस्सा नजिस हुआ है, उसे धोया या काटा जाये। लेकिन अगर मैयित को क़ब्र में रख दिया गया हो तो नजिस हिस्से को काटना बेहतर है, बल्कि अगर मैयित को क़ब्र से बाहर निकालना उसकी तौहीन शुमार होता हो तो इस सूरत में नजिस हिस्से का काटना वाजिब है। अगर नजिस कफ़न को धोना या काटना मुमकिन न हो, मगर उसका बदलना मुमकिन हो तो उसको बदल देना चाहिए।   

577.  अगर कोई ऐसा इंसान मर जाये जिसने हज्ज या उमरे का एहराम बाँध रखा हो तो उसे आम तरीक़े से कफ़न पहनाना चाहिए और उसका सर व चेहरा ढकने में कोई हरज नही है।

578.     इंसान के लिए मुस्तहब है कि वह अपनी ज़न्दगी में कफ़न, बेरी व काफ़ूर आमादा करे।