579. ग़ुस्ल देने के बाद मैयित को हनूत करना वाजिब है। यानी उसकी पेशानी, दोनों हथेलियों, दोनों घुटनो और दोनों पैरों के अंगूठों पर काफ़ूर मला जाये। मुस्तहब है कि मैयित की नाक पर भी काफ़ूर मला जाये। काफ़ूर पिसा हुआ और ताज़ा होना चाहिए, लिहाज़ा अगर पुराना होने की वजह से उसकी बू ख़त्म हो गई हो, तो वह काफ़ी नही है।
580. हनूत में आज़ाए सजदा की तरतीब की रिआयत ज़रूरी नही है, मगर एहतियाते मुस्तहब यह है कि पहले काफ़ूर मैयित की पेशरानी पर मला जाये।
581. बेहतर यह है कि मैयित को कफ़न पहनाने से पहले हनूत किया जाये, लेकिन अगर मैयित को कफ़न पहनाने के दरमियान या कफ़न पहनाने के बाद भी हनूत किया जाये तो कोई हरज नही है।
582. जिसने हज्ज के लिए एहराम बाँध रखा हो अगर वह सफ़ा व मरवा के बीच सई पूरी करने से पहले मर जाये तो उसे हनूत करना जायज़ नही है। इसी तरह जिसने उमरे के लिए एहराम बाँधा हो अगर वह अपने बाल कटवाने से पहले मर जाये तो उसे भी हनूत करना जायज़ नही है।
583. जिस औरत का शौहर मर गया हो, उसके लिए इद्दत पूरी होने से पहले ख़ुशबू लगाना हराम है, लेकिन अगर वह मर जाये तो उसे हनूत करना वाजिब है।
584. एहतियाते वाजिब यह है कि मैयित को मुश्क, अम्बर, ऊद और दूसरी ख़ुशबुएं न लगाई जायें और न ही उन्हें काफ़ूर के साथ मिलाया जाये।
585. मुस्तहब है कि सैयदुश शोहदा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मिट्टी (ख़ाके शिफ़ा) की कुछ मिक़दार को काफ़ूर में मिलाया जाये, लेकिन उस काफ़ूर को ऐसे मक़ाम पर न लगाया जाये, जहाँ लगाने से ख़ाके शिफ़ा की बेहुरमती होती हो और यह भी ज़रूरी है कि ख़ाके शिफ़ा इतनी ज़्यादा न हो कि जब वह काफ़ूर के साथ मिल जाये तो उसे काफ़ूर न कहा जा सके।
586. अगर काफ़ूर इतना कम हो कि उससे ग़ुस्ल और हनूत दोनों काम न हो सकते हों तो ग़ुस्ल को मुक़द्दम करना चाहिए (प्राथमिकता देनी चाहिए) और अगर ग़ुस्ल के बाद इतना कम बचा हो कि उसे सातो हिस्सों पर न लगाया जा सकता हो तो पेशानी को मुक़द्दम करना चाहिए।
587. मुस्तहब है कि दो तरो ताज़ा टहनियाँ मैयित के साथ क़ब्र में रखी जायें