638. इस्लाम की मुक़द्दस शरीअत में बहुत से ग़ुस्ल मुस्तहब हैं जिन में से कुछ यह हैं:
इस का वक़्त सुब्ह की अज़ान के बाद से ज़ोहर तक है। बेहतर यह है कि ग़ुस्ल ज़ोहर के क़रीब किया जाये और अगर कोई इंसान उसे ज़ोहर तक अंजाम न दे तो बेहतर यह है कि अदा और क़ज़ा की नियत किये बग़ैर अस्र के वक़्त तक करे और अगर जुमे के दिन ग़ुस्ल न करे तो सनिचर के दिन सुबह से सूरज के छुपने तक उसकी क़ज़ा बजा लाये। सनिचर की रात में उसकी कज़ा करना एहतियात की बिना पर सही नही है। जिस इंसान को यह डर हो कि जुमे के दिन पानी नही मिल सकेगा तो वह जुमेरात के दिन ग़ुस्ल अंजाम दे सकता है और मुस्तहब है कि ग़ुस्ले जुमा करते वक़्त यह दुआ पढें:
अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाहु वहदहु ला शरीकलहु व अशहदु अन्ना मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलुहू अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदिन व आलि मुहम्मद व इजअलनी मिनत तव्वाबीना व इजअलनी मिनल मुतह्हिरीन।
(2) रमज़ान के महीने की पहली रात का ग़ुस्ल और सभी ताक़ रातो का ग़ुस्ल जैसे तीसरी पाँचवीं सातवीं....लेकिन मुस्तहब है कि इक्कीसवीं रात के बाद सभी रातों में ग़ुस्ल किया जाये। माहे रमाज़ान की पहली, पन्द्रहवीं, सत्रहवीं, उन्नीस्वी, इक्कीससवीं, तेईसवीं, पच्चीसवीं, सत्ताइसवीं और उन्तीसवीं रात के ग़ुस्ल के लिए ख़ास ताकीद की गई है। रमज़ान के महीने की रातों के ग़ुस्ल का वक़्त पूरी रात है मगर बेहतर यह है कि सूरज छुपने के फ़ौरन बाद किया जायें। लेकिन इक्कीसवीं रात से महीने की आखरी रात तक बेहतर है कि ग़ुस्ल मग़रिब व इशा की नमाज़ के बीच किया जाये। यह भी मुस्तहब है कि तेइसवीं रात मेंदो ग़ुस्ल किये जायें एक सूरज छुपने के बाद और दूसरा रात के आख़िरी हिस्से में।
(3) ईदुलफ़ित्र और ईदे क़ुरबान के दिन का ग़ुस्ल, उस का वक़्त सुब्ह की अज़ान से सूरज ग़ुरूब होने तक है। बेहतर यह है कि ईद की नमाज़ से पहले कर लिया जाये। अगर ज़ोहर से छुपने के बीच किया जाये तो एहतियात यह है कि रजा की नियत से किया जाये।
(4) ग़ुस्ले शबे इदे फ़ित्र, इसका वक़्त सूरज छुपने से सुबह की अज़ान तक है। बेहतर यह है कि रात के पहले ही हिस्से में कर लिया जाये।
(5) माहे ज़िल हिज्जा के आठवें और नवें दिन का ग़ुस्ल और बेहतर यह है कि नवें दिन का ग़ुस्ल ज़ोहर के नज़दीक किया जाये।
(6) रजब के महीने की पहली, पन्द्रहवीं, सत्रहवीं और आखिरी तारीख़ का ग़ुस्ल।
(7) ईदे ग़दीर के दिन का ग़ुस्ल, बेहतर यह है कि ज़ोहर से पहले किया जाये।
(8) ज़िलहिज्जः की चौबीसवीं तारीख़ का ग़ुस्ल।
(9) इदे नौ रोज़ , पन्द्र शाबान, नवीं व सत्रहवीं रबी उल अव्वल और पच्चीसवीं हिल हिज्जः को रजा की नियत से ग़ुस्ल किया जाये।
(10) ग़ुस्ले मौलूद यानी बच्चे के पैदा होने के बाद बच्चे को पहली बार दिया जाने वाला ग़ुस्ल।
(11) उस औरत का ग़ुस्ल जिसने अपने शौहर के अलावा किसी और के लिये ख़ुशबू इस्तेमाल की हो।
(12) उस शख़्स का ग़ुस्ल जो मसती की हालत में सो गया हो।
(13) उस इंसान का ग़ुस्ल जिसने अपने बदन का कोई हिस्सा ऐसी मय्यित के बदन से छुआ हो जिसे ग़ुस्ल दिया जा चुका हो हो।
(14) उस इंसान का ग़ुस्ल जिसने सूरज या चाँद के पूरे ग्रहण होने पर जान बूझ कर नमाज़ न पढ़ी हो।
(15) उस शख़्स का ग़ुस्ल जो किसी सूली चढ़े हुए इंसान को देखने गया हो और उसे देखा भी हो लेकिन अगर इत्तेफ़ाक़न या मज़बूरी की हालत में नज़र गई हो या अगर शहादत (गवाही) देने गया हो तो ग़ुस्ल मुस्तहब नही है।
639. मक्के शहर, हरमें मक्के, मस्जिदुल हराम, ख़ानाए काबा, हरमें मदीना, मसजिदुन नबी और आइम्मा अलैहिमुस्सलाम के हरम में दाख़िल होने से पहले मुस्तहब है कि इंसान ग़ुस्ल करे। अगर एक रोज़ में कई बार जाये तो एक ग़ुस्ल काफ़ी है। अगर कोई यह चाहे कि एक ही दिन में हरमे मक्के, मस्जिदुल हराम और ख़ानाए काबा में दाख़िल होना चाहे तो अगर सबकी नियत से एक ग़ुस्ल करले तो काफ़ी है। इसी तरह अगर कोई एक ही दिन में शहरे मदीने, हरमें मदीने और मस्जिदुन नबी में दाख़िल होना चाहे तो सबके लिए एक ग़ुस्ल काफ़ी है। दूर या क़रीब से पैग़म्बर व आइम्मा अलैहिमु अस्सलाम की ज़ियारत के लिए, अल्लाह से हाजत तलब करने के लिए, तौबा के लिए, इबादत में निशात हासिल करने के लिए, सफ़र पर जाने के लिए ख़ास तौर पर हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की ज़ियारत के सफ़र के लिए मुस्तहब है कि इंसान ग़ुस्ल करे। इस मसले में जितने ग़ुस्ल बयान किये गये हैं अगर उनमें से कोई ग़ुस्ल करने के बाद कोई ऐसा काम किया जो वुज़ू को बातिल कर देता है तो उसका ग़ुस्ल बातिल हो जाता है उ,से चाहिए कि दोबारा ग़ुस्ल करे।
640. मुस्तहब ग़ुस्लों के साथ इंसान ऐसे काम नही कर सकता जिनके लिए वुज़ू लाज़िम है जैसे नमाज़ (यानी मुस्तहब ग़ुस्ल के बाद नमाज़ के लिए वुज़ू करना ज़रूरी है)।
641. अगर इंसान के ज़िम्मे कई मुस्तहब ग़ुस्ल हों और वह शख़्स सब की निय्यत कर के एक ग़ुस्ल कर ले तो काफ़ी है। इसी तरह अगर किसी के ज़िम्मे कई वाजिब ग़ुस्ल हों या कुछ वाजिब व कुछ मुस्तहब ग़ुस्ल हो तो वह उन सबकी नियत से एक ग़ुस्ल कर सकता। अगर एक इंसान पर कई वाजिब ग़ुस्ल हों और वह उनको भूल गया हो तो अगर वह उनमें से किसी एक की नियत से भी ग़ुस्ल करले तो वह सब ग़ुस्लों के लिए काफ़ी है। ग़ुस्ले इस्तेहाज़ः ए मुतवस्सेतः के अलवा तमाम वाजिब ग़ुस्ल वुज़ू से किफ़ायत करते हैं यानी उनके बाद नमाज़ के लिए वुज़ू करने की ज़रूरत नही है।