741. इंसान नमाज़ में उस वक़्त मशग़ूल हो सकता है जब उसे यक़ीन हो जाये कि वक़्त दाख़िल हो गया है या दो आदिल मर्द वक़्त के दाख़िल होने की ख़बर दें, इस शर्त के साथ कि उनकी ख़बर हिस्सी हो मसलन वह बतायें कि शाख़स का साया कम होने के बाद दोबारा बढ़ना शुरू हो गया है। किसी वक़्त की पहचान रखने वाले, क़ाबिले इत्मीनान इंसान की अज़ान पर इक्तिफ़ा किया जा सकता है।
742. अंधे क़ैदी या इन्हीं जैसे दूसरे इंसानों को एहतियाते वाजिब की बिना पर उस वक़्त तक नमाज़ नही पढ़नी चाहिए जब तक वक़्त के दाख़िल होने का यक़ीन न हो जाये। लेकिन अगर आसमान में बादल ग़ुबार वग़ैरा मौजूद हो जिसकी बिना पर वक़्त के दाख़िल होने का यक़ीन हासिल न हो सकता हो तो इस सूरत में अगर क़वी ग़ुमान पैदा हो जाये तो नमाज़ पढ़ सकते हैं।
743. अगर ऊपर बयान किये गये तरीक़े से किसी इंसान को इत्मीनान हो जाये कि नमाज़ का वक़्त हो गया है और वह नमाज़ में मशग़ूल हो जाये, लेकिन नमाज़ के दौरान उसे पता चले कि अभी वक़्त दाख़िल नहीं हुआ तो उसकी नमाज़ बातिल है। अगर नमाज़ के बाद पता चले कि उसने सारी नमाज़ वक़्त से पहले पढ़ी है तो उसके लिए भी यही हुक्म है। लेकिन अगर नमाज़ के दौरान उसे पता चले कि वक़्त दाख़िल हो गया है या नमाज़ के बाद पता चले कि नमाज़ पढ़ते हुए वक़्त दाख़िल हो गया था तो उसकी नमाज़ सही है।
744. अगर कोई इंसान लापरवाई या ग़फ़लत की बिना पर इस बात की तरफ़ तवज्जोह दिये बग़ैर कि वक़्त के दाख़िल होने का यक़ीन कर के नमाज़ पढ़नी चाहिए, नमाज़ पढ़ले, और उसे नमाज़ के बाद उसे पता चले कि उसने सारी नमाज़ वक़्त में पढ़ी है तो उसकी नमाज़ सही है। लेकिन अगर पूरी नमाज़ या उसका कुछ हिस्सा वक़्त से पहले पढ़ा हो तो उसकी नमाज़ बातिल है। बल्कि अगर नमाज़ के बाद उसे पता चले कि नमाज़ के दौरान वक़्त दाख़िल हो गया था तब भी एहतियाते वाजिब यह है कि उस नमाज़ को दोबारा पढ़े।
745. अगर किसी इंसान को यक़ीन हो कि वक़्त दाख़िल हो गया है और वह नमाज़ पढ़ने लगे और नमाज़ के दौरान शक करे कि वक़्त दाख़िल हुआ है या नहीं तो उसकी नमाज़ बातिल है। लेकिन अगर नमाज़ के दौरान उसे यक़ीन हो कि वक़्त दाख़िल हो गया है और शक करे कि जितनी नमाज़ पढ़ी है वह वक़्त में पढ़ी है या नहीं तो उसकी नमाज़ सही है।
746. अगर नमाज़ का वक़्त इतना तंग हो कि नमाज़ के कुछ मुस्तहब अफ़आ़ल अदा करने से नमाज़ के कुछ वाजिबात वक़्त के बाद अदा करने पड़ें तो उन मुस्तहब कामों को छोड़ देना चाहिए। मसलन अगर क़ुनूत पढ़ने की वजह से नमाज़ का कुछ हिस्सा वक़्त के बाद पढ़ना पड़ता हो तो उसे चाहिए कि क़ुनूत न पढ़े। अगर वह इस सूरत में क़ुनूत पढ़ेगा तो गुनाहगार होगा लेकिन उसकी नमाज़ सही है।
747. जिस इंसान के पास नमाज़ की सिर्फ़ एक रकत अदा करने का वक़्त बचा हो तो उसे चाहिए कि पूरी नमाज़ अदा की नियत से पढ़े, अलबत्ता जान बूझ कर नमाज़ में इतनी देर नही करनी चाहिए।
748. अगर इंसान मुसाफ़िर न हो और उसके पास सूरज छुपने तक पाँच रकत नमाज़ पढ़ने का वक़्त हो तो उसे चाहिए कि ज़ोहर और अस्र की दोनों नमाज़ें पढ़े। लेकिन अगर उसके पास इससे कम वक़्त हो तो उसे चाहिए कि सिर्फ़ अस्र की नमाज़ पढ़े और बाद में ज़ोहर की नमाज़ क़ज़ा करे। इसी तरह अगर किसी आदमी के पास आधी रात तक पाँच रकत पढ़ने का वक़्त हो तो उसे चाहिए कि मग़रिब और इशा की नमाज़ पढ़े और अगर वक़्त इससे भी कम वक़्त हो तो उसे चाहिए कि सिर्फ़ इशा की नमाज़ पढ़े और बाद में अदा और क़ज़ा की नियत किये बग़ैर मग़रिब की नमाज़ पढ़े।
749. अगर इंसान मुसाफ़िर हो और सूरज डूबने तक उसके पास तीन रकत नमाज़ पढ़ने का वक़्त हो, तो उसे चाहिए कि ज़ोहर और अस्र की नमाज़ पढ़े और अगर इससे भी कम वक़्त हो तो उसे चाहिए कि सिर्फ़ अस्र की नमाज़ पढ़े और बाद में नमाज़े ज़ोहर की क़ज़ा करे और अगर आधी रात तक उसके पास चार रकत नमाज़ पढ़ने का वक़्त हो तो उसे चाहिए कि मग़रिब और इशा की नमाज़ पढ़े और अगर नमाज़ की तीन रकत के बराबर वक़्त बाक़ी हो तो उसे चाहिए कि पहले इशा की नमाज़ पढ़े और बाद में मग़रिब की नमाज़ अदा या कज़ा की नियत किये बग़ैर पढ़े। अगर इशा की नमाज़ पढ़ने के बाद मालूम हो कि अभी आधी रात होने में एक रकत या उस से ज़्यादा रकतें पढ़ने के लिए वक़्त बाक़ी है तो उसे चाहिए कि मग़रिब की नमाज़ फ़ौरन अदा की नियत से पढ़े।
750. मुस्तहब है कि इंसान नमाज़ को अव्वल वक़्त में पढ़े और बारे में बहुत ताकीद की गई है और अव्वले वक़्त से जितना ज़्यादा क़रीब हो बेहतर है। लेकिन अगर देर से पढ़ना किसी वजह से बेहतर हो, मसलन नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ने के लिए देर करे, तो देर से ही पढ़े।
751. जब इंसान के सामने कोई ऐसा उज़्र हो कि अगर अव्वले वक़्त में नमाज़ पढ़ना चाहे तो तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ने पर मजबूर हो और उसे इल्म या एहतेमाल हो कि उसका उज़्र आख़िरी वक़्त तक बाक़ी रहेगा तो वह अव्वले वक़्त में तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ सकता है। लेकिन अगर उसका लिबास नजिस हो या उसके सामने कोई दूसरा उज़्र हो और उसे एहतेमाल हो कि उसका उज़्र दूर हो जायेगा तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह उस उज़्र के दूर होने का इंतेज़ार करे और अगर उज़्र दूर न हो तो नमाज़ आख़िरी वक़्त में पढ़े। यह ज़रूरी नही है कि वह उज़्र के दूर होने का उस वक़्त तक इंतेज़ार करे कि वक़्त इतना वक़्त बाक़ी रह जाये कि सिर्फ़नमाज़ के वाजिबात अदा कर सके, बल्कि अगर नमाज़ के मुस्तहब कामों मसलन अज़ान, इक़ामत, क़ुनूत का वक़्त हो तो नजिस लिबास में ही मुस्तहब कामों के साथ नमाज़ पढ़े।
752. अगर कोई इंसान नमाज़ के मसाइल और शक्कियात और सह्व का इल्म न रखता हो और उसे इस बात का एहतेमाल हो कि उसे नमाज़ के दौरान इन मसाइल में से कोई मसला पेश आसकता है तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उन्हें सीख़ने के लिए नमाज़ को अव्वले वक़्त में न पढ़ कर, देर से पढ़े। लेकिन अगर उसे इत्मिनान हो कि नमाज़ को सही पढ़ लेगा तो अव्वले वक़्त में नमाज़ पढ़ सकता है। लेकिन अगर नमाज़ में कोई ऐसा मसला सामने आजाये जिसके बारे में वह नही जानता तो तो जिस तरफ़ एहतेमाल दे सकता तो उस पर अमल करके नमाज़ को तमाम करे। लेकिन नमाज़ के बाद मसले को पूछे और अगर उसकी नमाज़ बातिल हो तो नमाज़ को दोबारा पढ़े।
753. अगर नमाज़ का वक़्त काफ़ी हो और क़र्ज़ ख़ाह भी अपने क़र्ज़ का तक़ाज़ा कर रहा हो तो अगर मुमकिन हो तो पहले क़र्ज़ अदा करे और बाद में नमाज़ पढ़े। इसी तरह अगर कोई दूसरा ऐसा वाजिब काम पेश आ जाये जिसे फ़ौरन करना ज़रूरी हो तो उसके लिए भी यही हुक्म है मसलन अगर देखे कि मस्जिद नजिस हो गयी है तो ज़रूरी है कि पहले मस्जिद को पाक करे और बाद में नमाज़ पढ़े। अगर ऊपर बयान की गईं दोनों सूरतों में पहले नमाज़ पढ़े तो वह गुनाहगार शुमार होगा लिकन उसकी नमाज़ सही होगी।