754. इंसान को चाहिए कि नमाज़े अस्र को नमाज़े ज़ोहर के बाद और नमाज़े इशा को मग़रिब के बाद पढ़े और अगर जान बूझकर नमाज़े अस्र नमाज़े ज़ोहर से पहले और नमाज़े इशा नमाज़े मग़रिब से पहले पढ़े तो उसकी नमाज़ बातिल है।
755. अगर कोई इंसान नमाज़े ज़ोहर की नियत से नमाज़ पढ़नी शुरू करे और नमाज़ के दौरान उसे याद आये कि नमाज़े ज़ोहर पढ़ चुका है तो वह नियत को नमाज़े अस्र की तरफ़ नही पलटा सकता है। बल्कि ज़रूरी है कि नमाज़ तोड़कर नमाज़े अस्र पढ़े। मग़रिब और इशा की नमाज़ में भी यही हुक्म है।
756. अगर नमाज़े अस्र के दौरान किसी इंसान को यक़ीन हो कि उसने नमाज़े ज़ोहर नही पढ़ी है और वह नियत को नमाज़े ज़ोहर की तरफ़ पलटा कर नमाज़ पढ़ता रहे फिर उसे याद आये कि वह नमाज़े ज़ोहर पढ़ चुका है तो फ़ौरन नियत को नमाज़े अस्र की तरफ़ पलटा दे। उसने नमाज़ का जो हिस्सा ज़ोहर की नियत से पढ़ा है अगर वह रुक्न हो तो नमाज़ को तमाम करे और बाद में नमाज़े अस्र दोबारा पढ़े। लेकिन अगर वह हिस्सा रुक्न न हो तो सिर्फ़ उस हिस्से को ही अस्र की नियत से पढ़े, उसकी नमाज़ सही है। जबकि एहतियाते मुस्तहब यह है कि नमाज़ दोबारा पढ़ी जाये।
757. अगर किसी इंसान को नमाज़े अस्र के दौरान शक हो कि उसने नमाज़े ज़ोहर पढ़ी है या नहीं तो उसे चाहिए कि नियत को ज़ोहर की तरफ़ पलटा दे। लेकिन अगर वक़्त इतना कम हो कि नमाज़ पढ़ने के बाद सूरज डूब जाता हो तो नमाज़े अस्र की नियत से ही नमाज़ को तमाम करे और एहतियात की बिना पर ज़ोहर की नमाज़ की क़ज़ा करे।
758. अगर किसी इंसान को नमाज़े इशा में चौथी रकत के रुकू से पहले शक हो कि मग़रिब की नमाज़ पढ़ी है या नहीं तो अगर वक़्त इतना कम हो कि नमाज़ ख़त्म होने के बाद आधी रात हो जाती हो तो नमाज़ को इशा की नियत से ही तमाम करे। लेकिन अगर वक़्त ज़्यादा हो तो नियत को मग़रिब की तरफ़ पलटा कर तीन रकत पढ़े और बाद में इशा की नमाज़ पढ़े।
759. अगर कोई इंसान नमाज़े इशा की चौथी रकत में रूकू में पहुँचने के बाद शक करे कि उसने नमाज़े मग़रिब पढ़ी है या नहीं तो उसे चाहिए कि नमाज़ को तमाम करे और बाद में मग़रिब की नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर यह शक उस वक़्त में हो जो नमाज़े इशा का मख़सूस वक़्त है तो एहतियात की बिना पर नमाज़े मग़रिब की क़ज़ा करनी चाहिए।
760. अगर कोई इंसान किसी पढ़ी हुई नमाज़ को एहतियातन दोबारा पढ़ रहा हो और नमाज़ के दौरान उसे याद आये कि उस नमाज़ से पहले पढ़ी जाने वाली नमाज़ नहीं पढ़ी है तो वह नियत को उस नमाज़ की तरफ़ नहीं पलटा सकता। मसलन अगर कोई नमाज़े अस्र एहतियातन पढ़ रहा हो और उसे याद आये कि उसने नमाज़े ज़ोहर नहीं पढ़ी है तो वह नियत को नमाज़े ज़ोहर की तरफ़ नहीं मोड़ सकता।
761. क़ज़ा नमाज़ की नियत अदा नमाज़ की तरफ़ और मुस्तहब नमाज़ की नियत बाजिब नमाज़ की तरफ़ मोड़ना जाइज़ नहीं है।
762. एहियाते वाजिब यह है कि अगर कोई नमाज़ कज़ा हो गई है तो उसे बाद वाली अदा नमाज़ पढ़ने से पहले पढ़ना चाहिए। अगर कोई अदा नमाज़ पढ़नी शुरू करदे और बाद में उसे याद आये कि आज कोई नमाज़ कज़ा हुई है तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह नियत को क़ज़ा नमाज़ की तरफ़ पलटा दे। इसी तरह अगर कोई अदा नमाज़ पढ रहा हो और उसे याद आये कि कोई पुरानी क़ज़ा नमाज़ भी उसके ज़िम्मे है तोमुस्तहब यह है कि वह नियत को क़ज़ा नमाज़ की तरफ़ पलटा दे। इन दोनों सूरतों में अगर वक़्त तंग हो या उदूल की जगह से गुज़र चुका हो मसलन नमाज़े ज़ोहर की तीसरी रकत में रुकू के बाद याद आये कि सुबाह की नमाज़ क़ज़ा है तो इस सूरत में वह नियत को सुबह की क़ज़ा नमाज़ की तरफ़ नही मोड़ सकता।