क़िबले के अहकाम

775.     ख़ान -ए- काबा जो कि मक्क -ए- मकर्रेमा में है, वह क़िबला है। लिहाज़ा उसके सामने ख़ड़े हो कर नमाज़ पढ़नी चाहिए। लेकिन जो इंसान उससे दूर हो अगर वह इस तरह ख़ड़ा हो कि लोग उसे देख कर यह कहे कि क़िबले की तरफ़ रुख़ कर के नमाज़ पढ़ रहा है तो काफ़ी है। इसी तरह वह दूसरे काम जिन्हें क़िबले की तरफ़ रुख़ कर के अंजाम दिया जाता है जैसे  हैवानात को जिबह करना, उनके बारे में भी यही हुक्म है।

776.     जो इंसान ख़ड़े हो कर वाजिब नमाज़ पढ़ रहा हो उसके लिए ज़रूरी है कि इस तरह खड़ा हो कि लोग उसे देख कर यह कहें कि क़िबला रुख़ खड़ा है। उसके घुदनों व पावँ की उंगलियों का क़िबले की तरफ़ होना ज़रूरी नही है।

777.     जिस इंसान के लिए बैठकर नमाज़ पढ़नी ज़रूरी हो और वह नमाज़ पढ़ने के आम तरीक़े से न बैठ सकता हो बल्कि पैरों को फैला कर बैठता हो तो नमाज़ पढ़ते वक़्त उसका चेहरा, सीना और पेट क़िबले की तरफ़ होने चाहिए, लेकिन उसकी पिंडलियों का किबला रुख होना ज़रूरी नही है।

778.     जो इंसान बैठकर नमाज़ न पढ़ सकता उसे चाहिए कि दाहिनी करवट के बल इस तरह लेटे कि उसके बदन का अगला हिस्सा क़िबले की तरफ़ हो और अगर यह मुमकिन न हो तो बायें पहलू के बल यूँ लेटे कि उसके बदन का अगला हिस्सा क़िबले की तरफ़ हो। अगर यह दोनों सूरतें मुमकिन न हों तो कमर के बल इस तरह लेटे कि उसके पावँ के तलवे क़िबले की तरफ़ हों।

779.     नमाज़े एहतियात, भूले हुए सजदे और तशह्हुद को क़िबले की तरफ़ रुख़ कर के अदा करना ज़रूरी है और एहतियात की बिना पर सजदा -ए- सह्व को भी क़िबले की तरफ़ रुख़ कर के अदा करना चाहिए।

780.     मुस्तहब नमाज़ रास्ता चलते हुए और सवारी पर ( कार, गाड़ी, रेल, किश्ती, जहाज़) भी पढ़ी जा सकती है, अगर इंसान इन दोनों में से किसी भी एक हालत में मुस्तहब नमाज़ पढ़े तो उसका क़िबला रुख होना ज़रूरी नही है।

781.     जो इंसान नमाज़ पढ़ना चाहता हो उसे क़िबले की सिम्त (दिशा) को मुऐय्यन करने की कोशिश करनी चाहिए ताकि क़िबले की सिम्त (दिशा) का यक़ीन हो सके। या अगर ऐसे दो आदिल आदमी गवाही दें जो क़िबले की सिम्त (दिशा) को जानतें हो, या कोई ऐसा इंसान कहे जो साइंस के क़ानून के मुताबिक़ क़िबले को पहचानता हो और उसके कहने पर इत्मिनान हो तो उसके कहने पर अमल करना चाहिए। अगर यह मुमकिन न हो तो मुसलमानों की मसजिदों के मेहराब से या उनकी क़बरों से या दूसरे तरीक़ों से जो गुमान पैदा हो उसके मुताबिक़ अमल करे, यहाँ तक कि अगर किसी ऐसे फ़ासिक़ या काफ़िर के कहने पर जो साइंसी क़ानून के ज़रिए क़िबले का रुख़ पहचानता हो, क़िबले के बारे में गुमान पैदा हो जाये तो वह भी काफ़ी है।

782.     जिस इंसान को क़िबले की सिम्त (दिशा) के बारे में गुमान हो,  अगर वह अपने मौजूदा गुमान से और ज़्यादा क़वी गुमान पैदा कर सकता हो तो वह अपने उस कम दर्जे के गुमान पर अमल नहीं कर सकता, मसलन अगर मेहमान, साहिबे ख़ाना के कहने पर क़िबले की सिम्त (दिशा) के बारे में गुमान पैदा कर ले, लेकिन अगर वह किसी दूसरे तरीक़े से ज़्यादा गुमान पैदा कर सकता हो (मसलन क़िबला नुमा के ज़रिये) तो उसे साहिबे ख़ाना के कहने पर अमल नही करना चाहिए।

783.     अगर सादे क़िबला नुमा सही हों तो वह क़िबले की सिम्त (दिशा)  को जानने का अच्छा ज़रिया हैं, उनके ज़रिये पैदा होने वाला गुमान किसी भी तरह दूसरे ज़रियों से कम नही है, बल्कि उनसे ज़्यादा सही है।

784.     अगर कोई क़िबले की सिम्त (दिशा) न जानता हो तो वह मुसलमानों की क़ब्रों और मस्जिदों की मेहराब देख कर क़िबले की सिम्त को मुऐयन कर सकता है, लेकिन अगर वह अपनी कोशिश या क़िबले नुमा जैसे किसी जदीद (आधुनिक) आले (यन्त्र) से किसी दूसरी तरफ़ क़िबले के होने का यक़ीन व इत्मिनान करे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर मस्जिदों के मेहराब और मुसलमानों की क़ब्रों को, क़िबले की पहचान का ज़रिया न बनाये, ख़सूसन अगर यह गुमान हो जाये कि यहाँ के रहने वाले मुसलमानों ने मस्जिदों की मेहराब और क़ब्रों के बनाने में ग़फ़लत बरती है और दिक़्क़त से काम नही लिया है, तो उसे उस तरफ़ नमाज़ पढ़नी चाहिए जिस तरफ़ क़िबले के होने का इत्मिनान या क़वी ज़न हो।      

785.     अगर किसी के पास क़िबले का रुख़ मुऐय्यन करने का कोई ज़रिया न हो (मसलन क़ुतुब नुमा) या कोशिश के बावुजूद उसका गुमान किसी एक तरफ़ न हुआ हो तो इस सूरत में अगर नमाज़ का वक़्त काफ़ी हो तो उसे चारों तरफ़ रुख कर के नमाज़ पढ़नी चाहिए (यानी एक ही नमाज़ को चार मर्तबा हर तरफ़ रुख़ कर के पढ़े) अगर चारों तरफ़ नमाज़ पढ़ने का वक़्त न हो तो जितनी तरफ़ रुख़ करके पढ़ सकता हो उन्हें पढ़े , मसलन अगर सिर्फ़ एक नमाज़ पढ़ने का वक़्त हो तो जिस तरफ़ चाहे रुख़ करके पढ़े, नमाज़ों को इस तरह पढ़ना चाहिए कि यह यक़ीन हो जाये कि उनमें से एक क़िबला रुख़ थी। 

786.     अगर किसी इंसान को यक़ीन या गुमान हो कि क़िबला दो में से एक तरफ़ है तो ज़रूरी है कि दोनों तरफ़ रुख़ कर के नमाज़ पढ़े। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि गुमान की सूरत में चारों तरफ़ रुख़ करके नमाज़ पढ़े।

787.     जो इंसान कई तरफ़ रुख़ कर के नमाज़ पढ़ना चाहता हो, अगर वह ज़ोहर व अस्र या मग़रिब व इशा की नमाज़ पढ़ना चाहता हो तो बेहतर यह है कि पहले, पहली नमाज़ को हर उस सिम्त की तरफ़ रुख़ करके पढ़े जिसकी तरफ़ रुख़ करके पढ़ना वाजिब हो और बाद में दूसरी नमाज़ शुरू करे।

788.     जिस इंसान को क़िबले की सिम्त (दिशा) का यक़ीन न हो अगर वह नमाज़ के अलावा कोई ऐसा काम करना चाहे जिसके लिए क़िबले की तरफ़ रुख़ करना ज़रूरी हो मसलन अगर वह कोई हैवान ज़िबह करना चाहता हो तो उसे चाहिए कि गुमान पर अमल करे और अगर गुमान पैदा करना मुमकिन न हो तो चाहे जिस तरफ़ रुख़ करके उस काम को अंजाम दे, सही है।

789.     अगर किसी एक सिम्त की तरफ़ क़िबले के होने का ज़न हो जाये और उस तरफ़ रुख़ करके नमाज़ शुरू करदे और नमाज़ के दौरान किसी दूसरी सिम्त की तरफ़ क़िबले का ज़न हो जाये तो बाक़ी नमाज़ को उस दूसरी सिम्त रुख़ करके पढ़े। लेकिन अगर पढ़ी हुई नमाज़ क़िबले के दाहिनी बाईं या पीछे की तरफ़ पढ़ी हो तो इस सूरत में एहतियाते वाजिब की बिना पर नमाज़ को दोबारा नये गुमान वाली सिम्त में पढ़ना चाहिए।

790.     अगर कोई इंसान क़िबले की तहक़ीक़ किये बग़ैर लापरवाई से किसी एक सिम्त कड़े हो कर नमाज़ पढ़ले और नमाज़ के बाद उसे मालूम हो कि क़िबले की सिम्त सही थी, तो अगर नमाज़ पढ़ने में क़स्दे क़ुरबत था तो उसकी नमाज़ सही है। लेकिन अगर नमाज़ पढ़ने के बाद मालूम हो कि क़िबले की सिम्त सही नही थी तो उसकी नमाज़ बातिल है, उसे चाहिए की नमाज़ दोबारा पढ़े। अलबत्ता क़िबले की सिम्त में क़िबले से 10 डिग्री दाहिनी या बाईं तरफ़ होना भी क़िबला रुख़ है।

791.     अगर किसी जानवर को जान बूझ कर क़िबला रुख़ ज़िबाह न किया जाये तो उसका गोशत खाना हराम है, लेकिन अगर कोई क़िबले की सिम्त न जानता हो या क़िबले की सिम्त भूल गया हो या जाहिले मुताज़्ज़िर हो और वह जानवर को क़िबला रुख़ ज़िबह न कर पाये तो उसका गोश्त खाना हलाल है।