नमाज़ के वाजिबात

वाजिबाते नमाज़ ग्यारह हैं:

1-    निय्यत

2-    क़ियाम (यानी खड़े होना)

3-    तकबीरातुल एहराम, (यानी नमाज़ के शुरू में अल्लाहो अकबर कहना)

4-    रुकूउ

5-    सुजूद

6-    क़राअत

7-    ज़िक्र

8-    तशहुद

9-    सलाम

10-तरतीब

11-मवालात( यानी नमाज़ के तमाम हिस्सों को एक के बाद एक फ़ौरन, बग़ैर फ़ासले के अदा करना)

962.    वाजिबाते नमाज़ की दो क़िस्में हैं: रुकनी और ग़ैर रुकनी। रुकनी वाजिबात, वह हैं कि अगर उनको अदा न किया जाये या ज़्यादा कर दिया ज़ाये तो नमाज़ बातिल हो जाती है चाहे कमी या ज़्यादती जान बूझ कर की जाये या भूल चूक की बिना पर हो। लेकिन ग़ैर रुकनी वाजिबात वह हैं कि उनमें जान बूझ कर कमी या ज़्यादती की जाये तो नमाज़ बातिल हो जाती है लेकिन अगर भूल चूक की बिना पर हो तो नमाज़ बातिल नही होती। नमाज़ के पाँच रुक्न हैं:

1-    निय्यत

2-    तकबीरातुल एहराम

3-    क़ियाम, यानी तकबीरातुल एहराम कहते वक़्त खड़े होना और क़ियाम मुत्तसिल बरुकूउअ यानी रुकूउअ में जाने से पहले खड़े होना।

4-    रुकूउअ

5-    दो सजदे

निय्यत

963.          इंसान को चाहिए कि नमाज़, क़ुरबत के इरादे से पढ़े, यानी सिर्फ़ अल्लाह के हुक्म पर अमल करने की निय्यत से। यह बी ज़रूरी नही है कि इंसान निय्यत को अपने दिल में गुज़ारे या ज़बान से कहे कि चार रकअत नमाज़े ज़ोहर पढ़ता हूँ क़ुरबतन इ-लल्लाह।

964.          अगर नमाज़े ज़ोहर या अस्र में चार रकअत नमाज़ पढ़ने की निय्यत करे और ज़ोहर या अस्र को मुऐयन न करे तो उसकी नमाज़ बातिल है और इसी तरह अगर किसी पर ज़ोहर की कज़ा नमाज़ वाजिब हो और वह ज़ोहर की नमाज़ के वक़्त, नमाज़ पढ़ना चाहता हो तो दोंनों में से जो नमाज़ भी पढ़ना चाहे उसे निय्यत में मुऐयन करे।

965.          इंसान को नमाज़ के शुरू से आख़िर तक अपनी निय्यत पर बाक़ी रहना चाहिए और अगर वह नमाज़ पढ़ते वक़्त इतना ग़ाफ़िल हो जाये कि उसे भी ख़्याल न रहे कि क्या कर रहा है तो उसकी नमाज़ बातिल है।

966.          इंसान को सिर्फ़  अल्लाह के हुक्म पर अमल करने की निय्यत से नमाज़ पढ़नी चाहिए अतः जो इंसान रिया ( लोगों को दिखाने के लिए) के लिए नमाज़ पढ़ेगा उसकी नमाज़ बातिल है,चाहे उसकी नज़र में सिर्फ़ इंसान हों या अल्लाह और इंसान दोनो  हों।

967.          अगर नमाज़ का कुछ हिस्सा भी अल्लाह के अलावा किसी दूसरे के लिए पढ़ा जाये तो नमाज़ बातिल है, नमाज़ का वह हिस्सा जो रिया के लिए पढ़ा गया चाहे वाजिब हो, मसलन हम्द व सूरः या मुस्तहब हो, जैसे क़ुनूत। बल्कि अगर नमाज़ तो अल्लाह के लिए ही पढ़े, लेकिन लोगों को दिखाने के लिए उसे किसी ख़ास जगह जैसे मस्जिद या किसी मख़सूस वक़्त पर, मसलन अव्वले वक़्त, या मख़सूस तरीक़े से, मसलन जमाअत के साथ नमाज़ पढ़े तब भी नमाज़ बातिल है।

तकबीरातुल एहराम

968.          हर नमाज़ केशुरू में अल्लाहो अकबर कहना वाजिब है और यह नमाज़ का रुक्न भी है। अल्लाह और अकबर के हुरुफ़ और दोनो लफ़्ज़ों (अल्लाह) और (अकबर) को एक दूसरे के बाद फ़ौरन कहे और यह दोनो लफ़्ज़ सही अरबी ज़बान में कहे जायें और अगर उन्हें ग़लत अरबी में कहा जाये या उनका तर्जुमा किसी अन्य ज़बान में कहा जाये तो सही नही।

969.          एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़ की तकबीरातुल एहराम को उस चीज़ से न मिलाया जाये जो उससे पहले पढ़े, मसलन इक़ामत या दुआ जो तकबीर से पहले पढ़ते हैं।

970.          अगर इंसान, अल्लाहु अकबर को उस चीज़ के साथ मिलाना चाहे जो उसके बाद पढ़ना चाहता हो, मसलन वह अल्लाहु अकबरको बिस्मिल्ला हिर्रहमानिर्रहीम से मिलाना चाहता हो तो अकबर की रे को पेश के साथ पढ़े।

971.          तकबीरातुल एहराम कहते वक़्त इंसान का बदन ठहरा हुआ (बेहरकअत) होना चाहिए और अगर तकबीरातुल एहराम को हिलते जुलते हुए जान बूझ कर कहा जाये बातिल है और अगर भूल चूक की बिना पर ऐसा हो जाये तो एहतियाते बाजिब यह है कि पहले कोई ऐसा काम करे जिससे नमाज़ बातिल हो जाये और बाद में दोबारा तकबीरातुल एहराम कहे।

972.          तकबीरातुल एहराम, हम्द, सूरः, दुआ और नमाज़ के दूसरे ज़िक्रों को इस तरह पढ़ना चाहिए कि अगर कोई रुकावट न हो (यानी अगर बहरा न हो या शौर ग़ुल न हो) तो ख़ुद सुन सके।

973.          जो लोग बीमारी यी गूँगेपन की वजह से अल्लाहो अकबर को सही तरीक़े से न कह सकते हों तो जिसे भी मुमकिन हो कहे और अगर बिल्कुल अदा न कर सकते तो दिल ही दिल में कहें और तकबीर के लिए इशारा करे और अगर मुमकिन हो तो ज़बान को भी हिलाये।  

974.          मुस्तहब है कि तकबीरातुल एहराम से पहले कहे,  या मोहसिनु क़द अताकल मुसियाउ वक़द अमरता मोहसिना अन यताजावज़ा  अनिल मूसी अनतल मोहसिनु व अनल मूसीउ बेहक़्क़े मुहम्मदिन व आलि मुहम्मदिन सल्ले अला मुहम्मदिन व आलि मुहम्मदिन वतजावज़ा अनिलक़बीहे मा तअलमु मिन्नी।

तर्जुमा:

ऐ अहसान करने वाले अल्लाह, तेरी बारगाह में गुनाहगार आया है तूने नेक काम करने वालों को हुक्म दिया है कि गुनाहगारों को माँफ़ कर दिया करें तू नेकूकार है और मैं गुनाहगार हूँ, मुहम्मद व आले मुहम्मद(अ) के तुफ़ैल में उन पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मेरी जिन बुराईयों से तू वाक़िफ़ है उनको माँफ़ फ़रमा दे।

975.          नमाज़ के शुरू में तकबीरातुल एहराम और बीच में दूसरी तकबीरें कहते वक़्त हाथों को कानों तक उठाना मुस्तहब है।

976.          अगर इंसान को शक हो कि तकबीरातुल एहराम कही है या नही, तो अगर हम्द या उससे पहले के मुस्तहब ज़िक्र जैसे आउज़ु बिल्लाहि मिनश शैतानिर्रज़ीम पढ़ने में मशग़ूल हो गया है तो अपने शक की परवा नही करनी चाहिए और अगर उस वक़्त तक कोई चीज़ नही पढ़ी है तो तकबीरातुल एहराम कहे।

977.          अगर तकबीरातुल एहराम कहने के बाद शक करे कि सही कही है कि नही तो अपने शक की परवाह न करे। लेकिन मुस्तहब है कि नमाज़ को पूरा करने के बाद दोबारा भी पढ़े।

क़ियाम

978.          तकबीरातुल एहराम कहते वक़्त और रुकूउ में जाने से पहले का क़ियाम (जिसको क़ियाम मुत्तसिल ब रुकूउ कहते हैं) यह दोनो रुक्न हैं। लेकिन हम्द व सूरः पढ़ते वक़्त का क़ियाम हुए और इसी तरह रुकूउ के बाद वाला क़ियाम वाजिब तो है मगर रुक्न नही है, लिहाज़ा अगर उनको कोई भूल कर छोड़ दे तो उसकी नमाज़ सही है।

979.          वाजिब है कि तकबीर कहने से पहले और उसके बाद थोड़ी देर खड़ा रहे ताकि यक़ीन हो जाये कि क़ियाम (खड़े होने) की हालत में तकबीर कही है।

980.          अगर कोई रुकूउ में जाना भूल जाये और हम्द व सूरः के बाद सजदे में जाने की निय्यत से झुक जाये और तब याद आये कि रुकूउ नही किया है तो उसे खड़े हो कर फिर रुकूउ में जाना चाहिए और अगर कोई खड़े हुए बिना, उसी हालत में झुके हुए ही रुकूउ की तरफ़ पलटे तो उसकी नमाज़ बातिल है क्योँकि क़ियाम मुत्तसिल ब रुकूउअ को छोड़ दिया है।

981.          खड़े होने की हालत में बदन को नही हिलाना चाहिए, न इधर उधर झुकना चाहिये और न ही किसी चीज़ पर टेक लगानी चाहिये, अलबत्ता अगर यह किसी मजबूरी की वजह से हो या रुकूउ की तरफ़ झुकते हुए पाँव को हरकअत दे तो कोई हरज नही।

982.          अगर खड़े होने की हालत में भूले से बदन को हिलाये जुलाये या किसी तरफ़ झुक जाये तो नमाज बातिल नही है, लेकिन अगर तकबीरातुल एहराम कहते हुए या क़ियाम मुत्तसिल ब रुकूउ के वक़्त भलचूक की वजह से भी हिले तो र एहतियाते वाजिब की बिना पर नमाज़ को दोबारा पढ़े।

983.          वाजिब यह है कि क़ियाम की हालत में दोनो पाँव ज़मीन पर हों, लेकिन यह ज़रूरी नही कि बदन का बोझ दोनो पैरों पर हो अगर बोझ एक पाँव पर भी हो तो कोई इशकाल नही।

984.          जो इंसान सही तरह खड़ा हो सकता हो अगर वह अपने पैरों को इतना ज़्यादा फैला दे कि आम तौर पर उसे खड़े होने की हालत न कहा जाये उसकी नमाज़ बातिल है।

985.          अगर नमाज़ में थोड़ा सा आगे या पीछे होना चाहे या बदन को दाहनी या बाँयी तरफ़ हरकअत देना चाहे तो कुछ न कहे, लेकिन  "बे हौलिल्लाहि व क़ुव्वतिहि अक़ूमु व अक़उद "  को ख़ड़े होते हुए कहना चाहिये, और नमाज़ के वाजिब ज़िक्र पढ़ते हुए भी बदन साकिन (बे हरकअत) होना चाहिये, बल्कि एहतियाते वाजिब यह है कि मुस्तहब ज़िक्रों को पढ़ते वक़्तबी बदन साकिन रहे।

986.          अगर बदन के हिलने की हालत में कोई ज़िक्र कहे मसलन रुकूउ या सजदे में जाते वक़्त तकबीर कहे तो अगर इस इरादे से कहे कि यह वह ज़िक़्र है जिसका नमाज़ में हुक्म दिया गया है तो एहतियातन नमाज़ दोबारा पढ़े और अगर इस इरादे से न कहे बल्कि उसका इरादा यह हो कि कोई ज़िक्र ज़बान पर होना चाहिए तो नमाज़ सही है।

987.          अलहम्द पढ़ते वक़्त हाथों और उंगलियों को हिलाने में कोई हरज नही है, जबकि एहतियाते मुस्तहब यह है कि उन्हे भी न हिलाया जाये।

988.          अगर हम्द व सूरः या तस्बीहाते अरबा पढ़ते वक़्त या कोई वाजिब ज़िक्र कहते हुए बदन बेइख़्तियार इतना हिले कि सुकून की हालत से ख़ारिज हो जाये तो एहतियाते वाजिब यह है कि जितना हिस्सा हिलने की हालत में पढ़ा है, उसे बदन साकिन होने के बाद दोबारा पढ़े।

989.          अगर नमाज़ पढ़ते हुए खड़ा न रह सकता हो तो बैठ जाये और अगर बैठना भी मुश्किल हो तो लेट जाये, लेकिन जब तक बदन साकिन न हो जाये वाजिबाते नमाज़ में से कोई चीज़ न पढ़े।

990.          जब तक इंसान खड़े हो कर नमाज़ पढ़ सकता हो उसे बैठना नही चाहिे मसलन अगर किसी का बदन खड़े होने की हलत में हिलता हो तो अगर वह  किसी चीज़ का सहारा लेकर खड़ा हो सकता हो या एक तरफ़ झुक करखड़ा हो सकता हो या पैरों को एक दूसरे से दूर रख कर खड़ा हो सकता हो तो यही करे, लेकिन अगर यह सब मुमकिन न हो, यहाँ तक कि रुकूउ की हालत की तरह भी खड़ा न हो सकता हो तो सीधा बैठ कर नमाज़ पढ़े।

991.          इंसान जब तक बैठ कर नमाज़ पढ़ सकता हो, लेट कर नमाज़ न पढ़े और अगर सीधा न बैठ सकता हो तो जिस तरह भी बैठ सकता हो बैठे और नमाज़ पढ़े, लेकिन अगर किसी तरह भी बैठना मुमकिन न हो तो जैसा क़िबले के अहकाम में कहा जा चुका है, दाहनी करवट लेट कर नमाज़ पढ़ेऔर अगर यह मुमकिन न हो तो बाईं करवट लेटे और अगर यह भी मुमकिन न हो तो इस तरह सीधा लेटे कि उसके पैरों के तलवे क़िबले की तरफ़ हों।

992.          जो इंसान बैठ कर नमाज़ पढ़ रहा हो अगर वह हम्द व सूरः पढ़ने के बाद खड़े होकर रुकूउ कर सकता हो तो खड़ा हो जाये और क़ियाम से रुकूउ में जाये अगर ऐसा न कर सकता हो तो रुकूउ भी बैठ कर करे।

993.          जो इंसान लेट कर नमाज़ पढ़ रहा हो अगर वह नमाज़ के बीच बैठ सकता हो तो जितना हिस्सा बैठ कर पढ़ सकता हो उतना बैठ कर पढ़े या अगर खड़ा हो सकता हो तो जितना हिस्सा खड़े हो कर पढ़ सकता हो उतना खड़े हो कर पढ़े, लेकिन जब तक उसका बदन साकिन न हो जाये नमाज़ के वाजिबात में से कुछ न पढ़े।  

994.          अगर कोई खड़े होकर नमाज़ तो पढ़ सकता हो मगर उसे डर हो कि अगर खड़े होकर नमाज़ पढ़ेगा तो बीमार हो जायेगा या उसे कोई नुक़्सान पहुँचेगा तो वह बैठ कर नमाज़ पढ़ सकता है और अगर बैठ कर नमाज़ पढ़ने से भी डरता हो तो लेटकर नमाज़ पढ़ सकता है।

995.          अगर किसी को इतमिनान हो कि आख़री वक़्त तक वह खड़ा होकर नमाज़ पढ़ सकेगा तो उसे आख़िरी वक़्त तक इंतेज़ार करना चाहिए, अगर उस वक़्त खड़े होने के काबिल हो जाये तो खड़े होकर नमाज़ पढ़े और अगर न हो तो बैठ कर नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर उसे एहतेमाल हो कि आख़िरी वक़्ततक उसकी मजबूरी ख़त्म हो जायेगी तो उसे आख़िरी वक़्ततक इंतेज़ारकरना चाहिए।  

996.          नमाज़ पढ़ते वक़्त, मुस्तहब है कि क़ियाम की हालत में सीधा खड़ा हो काँधों को झुकाये, हाथों को रानों पर रखे, उंगलियों को आपस में मिलाये रहे, निगाह सजदे की जगह पर रखे, अपने बदन का बोझ दोनो पैरों पर बराबर रखे, ख़ुज़ू व ख़ुशू के साथ हो, पैरों को आगे पीछे न करे , अगर मर्द है तो अपने दोनों पैरों के बीच तीन उंगल से एक बालिश्त तक फ़ासिला रखे और अगर औरत है तो अपने दोनों पैरों को मिला कर रखें।

क़राअत

997.          इंसान को रोज़ाना का वाजिब नमाज़ों की पहली और दूसरी रकअत में पहले हम्द और उसके बाद एक पूरा सूरः पढ़ना चाहिए।

998.          अगर नमाज़ का वक़्त कम होने की वजह से या किसी दूसरी वजह से मसलन चोर या किसी जानवर से  डर की वजह से इंसान सूरः न पढ़ने पर मजबूर हो तो उसे सूरः नही पढ़ना चाहिये, इसी तरह अगर उसे किसी काम के लिए जल्दी हो तब भी सूरः को छोड़ सकता है।

999.          अगर कोई इंसान जान बूझ कर सूरः को हम्द से पहले पढ़ ले तो उसकी नमाज़ बातिल है और अगर भूल की बिना पर ऐसा करे और सूरः पढ़ते हुए उसे याद आये तो वहीं से सूरे को छोड़ दे और हम्दपढ़कर सूरे को दोबारा शुरू से पढ़े।

1000.      अगर हम्द व सूरः या इन दोनो में से कोई एक भूल जाये और रुकूउ में पहुँचने के बाद आये तो नमाज़ सही है।

1001.      अगर रुकूउ के लिए झुकने से पहले मालूम हो जाये कि हम्द व सूरः नही पढ़ा है, तो उन्हे पढ़ें और अगर यह मालूम हो कि सूरः नही पढ़ा तो फ़क़त उसे पढ़े, लेकिन अगर मालूम हो कि हम्द नही पढ़ी है तो पहले हम्द और उसके बाद दोबारा सूरः पढ़े और अगर रुकूउ के लिए झुकने के बाद व रुकूउ में पहुँचने से पहले मालूम हो जाये कि हम्द व सूरः या सिर्फ़ सूरः या सिर्फ़ हम्द नही पढ़ी तो खड़ा हो जाये और ूपर लिखे हुक्म के मुताबिक़ अमल करे।

1002.      अगर कोई इंसान, वाजिब नमाज़ में, जान बूझ कर उन चार सूरों में से कोई एक सूरः पढ़े जिनमे सजदे की आयत है तो उसकी नमाज़ बातिल है।

1003.      अगर कोई इंसान नमाज़ में भूले से सूरः ए सजदा की तिलावत शुरु कर दे और सजदे की आयत तक पहुँचने से पहले मुतवज्जे हो जाये तो उस सूरः को  वही ख़त्म करके दूसरा सूरः पढ़े और अगर सजदे की आयत के बाद मुतवज्जे हो तो एहतियात की बिना पर नमाज़ की हालत में ही इशारे से उसका सजदा करे और जो सूरः पढ़ चुका है उसे ही काफ़ी समझे।

1004.      अगर कोई इंसान नमाज़ की हालत में आयते सजदा सुने और उसके लिए इशारे से सजदा करले तो उसकी नमाज़ सही है।

1005.      मुस्तहब नमाज़ों में सूरः पढ़ना ज़रूरी नही है चाहे वह नमाज़ नज़्र की वजह से वाजिब हो गई हों, लेकिन वह मुस्तहब नमाज़ें जिनके लिए कोई सूरः मख़सूस है, जैसे नमाज़े वहशते क़ब्र, अगर उनको उसी तरह पढ़ना चाहे जिस तरह उनका हुक्म दिया गया है, तो उनमें उसी सूरः को पढ़ना चाहिए, चाहे अभी उसके आधे तक न भी पहुँचे।

1006.      जुमे की नमाज़ और जुमे के दिन ज़ोहर की नमाज़ में, पहली रकअत में हम्द के बाद सूरः ए जुमा और दूसरी रकअत में सूरः ए  मुनाफ़ेक़ून का पढ़ना मुस्तहब है और जब इन दोनो में (जुमा, मुनाफ़ेक़ून) से किसी एक सूरे को शुरु कर दे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर इनको छोड़ कर किसी दूसरे सूरेः को नही पढ़ सकते।  

1007.      अगर कोई इंसान नमाज़ में अलहम्द के बाद सूरः ए क़ुल हुवल्लाह या सूरः ए क़ुल या अय्युहल काफ़ेरून को पढ़ना शुरू करदे तो उसे छोड़ कर किसी दूसरे सूरे को नही पढ़ सकता। लेकिन नमाज़े जुमा और जुमे के दिन नमाज़े ज़ोहर में अगर भूले से सूरः ए जुमा या सूरः ए मुनाफ़ेक़ून की जगह, इन दोनो में (क़ुल हुवल्लाह और सूरः ए क़ुल या अय्युहल काफ़ेरून) से किसी को शुरु कर दे तो आधे तक पहुँचने से पहले इनको छोड़ कर सूरः ए जुमा या मुनाफ़ेक़ून को पढ़ सकता है।

1008.      अगर नमाज़े जुमा या जुमे के दिन ज़ोहर की नमाज़ में जानबूझ कर सूरः ए क़ुल हुवल्लाह या क़ुल ला अय्युहल काफ़रून पढ़े तो एहतियाते वाजिब यह है कि आधे सूरः तक पहुँचने से पहले भी उन्हे छोड़ कर सूरः ए जुमा और मुनाफ़ेक़ून नही पढ़ सकता।

1009.      अगर नमाज़ में, हम्द के बाद क़ुल हुवल्लाह और क़ुल या अय्युहल काफ़ेरून के अलावा कोई अन्य सूरः पढ़े तो आधे तक पहुँचने से पहले उसे छोड़ कर कोई दूसरा सूरः पढ़ सकता है।

1010.      अगर सूरः के कुछ हिस्से को भूल जाये या किसी मजबूरी की वजह से उस सूरे को पूरा न पढ़ सकता हो मसलन नमाज़ का वक़्त कम रह गया हो तो उस सूरे को छोड़ कर दूसरा सूरः पढ़ सकता है, चाहे वह उस सूरे को आधे से ज़्यादा पढ़ चुका हो या जिससूरे को पढ़ना चाहता हो वह सूरः ए क़ुल हुवल्लाह या क़ुल या अय्युहल काफ़ेरून हो।

1011.      मर्दों पर वाजिब है कि सुबह, मग़रिब व इशा की नमाज़ में हम्द व सूरे को आवाज़ के साथ पढ़ें, लेकिन ज़ोहर व अस्र की नमाज़ में मर्दों व औरतों दोनो पर वाजिब है कि हम्द व सूरे को आहिस्ता पढ़ें।

1012.      मर्द को मुतवज्जे रहना चाहिये कि सुबह, मग़रिब व इशा की नमाज़ में हम्द व सूरे के तमाम  कलेमात को यहाँ तक कि उनके आख़िरी हर्फ़ को भी आवाज़ के साथ पढ़े।

1013.      औरत को इख़्तियार है कि वह सुबह, मग़रिब और इशा की नमाज़ में हम्द और सूरे को चाहे आवाज़ के साथ पढ़े या आहिस्ता, लेकिन अगर उसकी आवाज़ कोई नामहरम सुन रहा है तो एहतियाते वाजिब यह है कि आहिस्ता पढ़े।

1014.      अगर कोई इंसान जान बूझ कर नमाज़ के उस हिस्से को, जिसे आहिस्ता पढ़ना चाहिए, आवाज़ से पढ़े और जिसे आवाज़ के साथ पढ़ना चाहिए, उसे आहिस्ता पढ़े तो उसकी नमाज़ बातिल है, लेकिन अगर भूल चूक की बिना पर  या मसअला न जानने की वजह से ऐसा हो जाये तो नमाज़ सही है, और अगर हम्द व सूरः पढ़ते वक़्त मालूम हो जाये कि ग़लती हो गई है तो जितना हिस्सा पढ़ चुका है उसे दोबारा पढ़ना ज़रूरी नही है।

1015.      अगर कोई हम्द व सूरे को बहुत ऊँची आवाज़ के साथ पढ़े, मसलन चीख़ चीख़ कर पढ़े तो उसकी नमाज़ बातिल है।

1016.      इंसान के लिए ज़रूरी है कि नमाज़ को सही तरह से याद करे ताकि ग़लत न पढ़े, और जो इंसान किसी तरह भी नमाज़ को सही पढ़ना न सीख सकता हो, वह जिस तरह भी पढ़ सकता हो पढ़े और एहतियाते मुस्तहब यह है कि नमाज़ जमाअत के साथ पढ़े।

1017.      जो इंसान हम्द व सूरे या नमाज़ की अन्य चीज़ों अच्छी तरह न जानता और सीख सकता हो तो अगर नमाज़ के लिए वक़्त काफ़ी हो तो उसे उन्हे सीखना चाहिये ओर अगर वक़्त कम रह गया हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि अगर मुमकिन हो तो नमाज़ जमाअत के साथ पढ़े।

1018.      एहतियाते मुस्तहब यह है कि नमाज़ की वाजिब चीज़ें सिखाने की उजरत न ले, लेकिन नमाज़ की मुस्तहब चीज़े सिखाने की उजरत लेने में कोई हरज नही है।

1019.      अगर कोई हम्द व सूरः के कलिमात मे से एक कलेमे को न जानता हो या उसे जान बूझ कर न कहता हो या किसी हर्फ़ को दूसरे हर्फ़ से बदल देता हो मसलन ज़ाद की जगह ज़े कहता हो या जहाँ ज़ेर व ज़बर न पढ़ना हो वहाँ जेर वज़बर पढ़ता हो या तशदीद को न पढ़ता हो तो उसकी नमाज़ बातिल है।

1020.      अगर किसी को इत्मिनान हो कि वह हम्द, सूरे व नमाज़ के अन्य वाजिब ज़िक्रों को सही पढ़ता है, लेकिन बाद में पता चले कि वह ग़लत थे, तो उसने जो नमाज़ें पढ़ी हैं वह सही है और उनकी कज़ा ज़रूरी नही है, फ़क़त एहतियाते मुस्तहब यह है कि उन नमाज़ों की कज़ा करे। लेकिन अगर हम्द, सूरे या दूसरे ज़िक्रों के ग़लत होने का एहतेमाल हो और वह लापरवाही के साथ उसी तरह नमाज़ पढ़ता रहे और बाद में पता चले कि वह ग़लत थे तो उन नमाज़ों की कज़ा वाजिब है। अगर कोई अपनी ज़बान के खास लहजे की वजह से नमाज़ को सही अरबी में न पढ़ सकता हो तो वह जिस हद तक पढ़ सकता हो पढ़े नमाज़ सही है।   

1021.      अगर किसी लफ़्ज़ के ज़ेर व ज़बर को न जानता हो तो सीखना ज़रूरी है लेकिन अगर कोई ऐसा कलेमा हो जिसके आख़िरी हर्फ़ को वक़्फ़ करना जायज़ हो और यह हमेशा वक़्फ़ करता हो तो फिर सीखना ज़रूरी नही है। और इसी तरह अगर यह न जानता हो कि लफ़्ज़ सीन से है या स्वाद से तो उसे सीखना चाहिए और अगर वह उस लफ़्ज़ को दो या दो से ज़्यादा तरीक़ो से पढ़े यानी एक मर्तबा सीन के साथ और एक मर्तबा स्वाद के साथ, मसलन एहदिनस सिरातल मुस्तक़ीम में मुस्त़कीम को एक बार सीन से और एक बार स्वाद से पढ़े तो उसकी नमाज़ बातिल है।

1022.      अगर किसी लफ़्ज़ में वाव हो और उस वाव से पहले वाले हर्फ़ पर पेश हो और वाव के बाद हमज़ा हो तो बेहतर यह है कि वाव को मद के साथ खैंच कर पढ़े, इसी तरह अगर किसी लफ़्ज़ में अलिफ़ हो और अलिफ़ से पहले हर्फ़ पर ज़बर हो और अलिफ़ के बाद वाला हर्फ़ हमज़ा हो तो बेहतर है कि उस अलिफ़ को मद के साथ पढ़े, और अगर किसी लफ़्ज़ में "या" हो और या से पहले हर्फ़ पर ज़ेर हो और बाद वाला हर्फ़ हमज़ा हो तो बेहतर है कि या को मद के साथ ख़ैंच कर पढ़े और अगर उन हुरुफ़ वाव, अलिफ़ व या के बाद हमज़ा की बजाए कोई साकिन हर्फ़ हो तो भी इन तीनों हुरुफ़ को मद के साथ पढ़ना बेहतर है, मिसाल के तौर पर वलज़ ज़ाल्लीन में अलिफ़ के बाद लाम साकिन है तो उस अलिफ़ को मद के साथ पढ़ना चाहिए।

1023.      अक़वा यह है कि नमाज़ में वक़्फ़ पर सकून और हरकअत पर वस्ल की रिआयत करना ज़रूरी नही है। लिहाज़ा अगर कोई किसी लफ़्ज़ के आखिरी हर्फ़ के ज़ेर, ज़बर या पेश को पढ़े और उस लफ़्ज़ व बाद वाले लफ़्ज़ के बीच फ़ासेला कर दे मसलन अर्रहमानिर्रहीम कहते वक़्त कहे अर्रहमानिर्रहीमे और थोड़ा रुक कर मालिकि यौमिद्दीन कहे तो नमाज़ बातिल नही होगी, इसी तरह अगर किसी लफ़्ज़ के आख़िरी हर्फ़ के ज़ेर, ज़बर या पेश को न पढ़े और उस लफ़्ज़ को बाद वाले लफ़्ज़ से मिला दे तो भी नमाज़ बातिल नही है, मसलन इस तरह कहे अर्रहमानिर्रहीम और फ़ौरन कहे मालिकि यौमिद्दीन।   

1024.      इंसान को नमाज़ की तीसरी व चौथी रकअत में इख़तियार है कि चाहे एक बार हम्द पढ़े या तीन मर्तबा तसबीहाते अरबआ, यानी सुबहानल्लाहि वल हम्दुलिल्लाहि व ला इलाहा इल्लल्लाहु वल्लाहु अकबर, और एहतियाते वाजिब यह है कि तीन बार तसबीहाते अरबआ पढ़े, यह भी कर सकता है कि एक रकअत में हम्द और एक में तसबीहात पढ़े, लेकिन बेहतर यह है कि दोनों रकअतों में तस्बीहाते अरबा ही पढ़े।

1025.      अगर नमाज़ का वक़्त बहुत कम हो तो तस्बीहाते अरबा को एक बार पढ़ना चाहिए।

1026.      मर्दों और औरतों दोनों पर वाजिब है कि नमाज़ की तीसरी व चौथी रकअत में हम्द या तस्बीहाते इरबा को आहिस्ता पढ़े।

1027.      अगर तीसरी व चौथी रकअत में हम्द पढ़े तो एहतियाते वाजिब यह है कि बिस्मिल्लाह को भी आहिस्ता पढ़े, ख़ास तौर पर मामूम या वह लोग अपनी फ़ुरादा नमाज़ पढ़ रहे हों।

1028.      जो इंसान तस्बीहाते अरबा को याद न कर सकता हो, या उन्हे सही तरह न पढ़ सकता हो, तो उसे तीसरी और चौथी रकअत में भी सूरः ए अलहम्द पढ़नी चाहिए।

1029.      अगर कोई नमाज़ की पहली या दूसरी रकअत में उसे तीसरी या चौथी रकअत समझते हुए, तस्बीहाते अरबा पढ़ले और रुकूउ से पहले याद आजाये तो ज़रूरी है कि हम्द व सूरः पढ़े, और एहतियाते मुस्तहब यह है कि तस्बीहाते अरबा ज़्यादा पढ़ने की वजह से दो सजद ए सह्व भी करे लेकिन अगर रुकूउ के बाद याद आये तो उसकी नमाज़ सही है।

1030.      अगर कोई इंसान नमाज़ की आख़री दो रकअतों को पहली और दूसरी ख़्याल करते हुए उनमें अलहम्द पढ़ले या नमाज़ की आख़री दो रकतों में यह ख़्याल करते हुए कि यह पहली दो रकतें है अलहम्द पढ़े तो उसकी नमाज़ सही है चाहे यह बात रुकूउ से पहले मालूम हो या रुकूउ के बाद।

1031.      अगर कोई नमाज़ की तीसरी व चौथी रकअत में सूरः ए अलहम्द पढ़ना चाहता हो लेकिन ज़बान पर तस्बीहाते अरबा आ जाये या इसके बरअक्स (विपरीत) अगर कोई तस्बीहात पढ़ना चाहता हो और ज़बान पर अल्हम्द आ जाये तो अक़वा यह है कि वह उसे वहीं छोड़ दे और दोबारा हम्द या तस्बीहात जो भी पढ़ना चाहता हो उसे पढ़े। यह लेकिन अगर उसे उनमें से किसी एक चीज़ को पढ़ने की आदत हो और वही उसकी ज़बान पर आजाये और उसके दिल में भी उसी का क़स्द हो तो उसे ही पढ़ कर नमाज़ तमाम करे, उसकी नमाज़ सही है।

1032.      जिस इंसान को तीसरी और चौथी रकअत में तस्बीहाते अरबा पढ़ने की आदत हो अगर वह बग़ैर क़स्द के सूरः ए अलहम्द पढ़ना शुरू करदे तो अक़वा यह है कि उसको छोड़ दे और दोबारा तस्बीहात या सूरः ए अलहम्द पढ़े।

1033.      तस्बीहात के बाद इस्तग़फ़ार करना मुस्तहब है। यानी तस्बीहात पढ़ने के बाद एक बार अस्तग़फिरुल्लाह रब्बी व आतूबु इलैह या अल्लाहुम्मा इग़फिरली कहे।  अगर कोई यह गुमान करते हुए कि तस्बीहात पढ़ चुका है, इस्तग़फ़ार पढ़ने लगे और हालत में उसे शक हो कि तस्बीहाते अरबा पढ़ी है या नही तो उसे अपने शक की परवा नही करनी चाहिए। इसी तरह अगर रुकूउ में झुकने से पहले जबकि इस्तग़फ़ार न पढ़ रहा हो, शक करे कि अलहम्द या तस्बीहाते अरबा पढ़ी है या नही तो उसे भी अपने शक की परवा नही करनी चाहिए।

1034.      अगर तीसरी या चौथी रकअत में रुकूउ में जाते हुए या रुकूउ की हालत में शक करे कि अलहम्द या तस्बीहात पढ़ी हैं या नही तो उसे अपने शक की परवा नही करनी चाहिए।

1035.      अगर नमाज़ी को शक हो कि आयत या जुमला सही पढ़ा है या नही, तो अगर वह बाद वाली चीज़ में मशग़ूल नही हुआ है तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसे शक वाली आयत या जुमले को दोबारा सही पढ़ना चाहिए।, लेकिन अगर वह उसके बाद वाली चीज़ पढ़ने में मशग़ूल हो गया हो और बाद वाली चीज़ रुक्न हो, मसलन रुकूउ की हालत में शक करे कि फ़लाँ सूरे के उस लफ़्ज़ को  सही पढ़ा हैं या नही तो इस सूरत में उसे अपने शक की परवा नही करनी चाहिए। लेकिन अगर बाद वाली चीज़ जिसमें मशग़ूल हुआ है, वह रुक्न न हो मसलन अल्लाहुस्समद कहते वक़्त शक करे कि कुल हुवल्लाहु अहद सही कहा है या नही तो इस सूरत में भी उसे अपने शक की परवा नही करनी चाहिए, अलबत्ता अगर वह इस आयत को एहतियातन दोबारा कहना चाहे तो इसमें भी कोई हरज नही है, चाहे उसे कई बार शक हो और वह हर बार दोहराता रहे। लेकिन अगर वह वसवासी हो जाये तो एहतियाते वाजिब की बिना पर नमाज़ को दोबारा पढ़े।

1036.      नमाज़ की पहली रकअत में सूरः ए अलहम्द पढ़ने से पहले आउज़ु बिल्लाहि मिनश शैतानिर रजीम कहना मुस्तहब है। इसी तरह अगर ज़ोहर व अस्र की नमाज़ जमाअत के साथ हो रही हो तो इमाम के लिए बिस्मिल्लाह को बलन्द आवाज़ से कहना मुस्तहब है।  लेकिन अगर फ़ुरादा नमाज़ हो तो आहिस्ता से कहना चाहिए। इसी तरह हम्द व सूरः को आहिस्ता ाहिस्ता रुक रुक कर पढ़ना चाहिए और हर आयत पर वक़्फ़ करना चाहिए। यानी पहली आयत को बाद वाली आयत से नही मिलाना चाहिए। हम्द व सूरः पढ़ते वक़्त उसके मअना (अर्थ) की तरफ़ ध्यान देना चाहिए। अगर नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ रहा हो तो हम्द तमाम होने के बाद अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन कहना चाहिए। इसी तरह सूरः ए क़ुल के बाद एक या दो या तीन बार कज़ालिकल्लाहु रब्बी  या कज़ालिकल्लाहु रब्बुना कहना चाहिए।  सूरः पढ़ने के बाद थोड़ रुक कर रुकूउ में जाने के लिए तकबीर कहनी चाहिए या क़ुनूत पढ़ना चाहिए।

1037.      हर नमाज़ की पहली रकअत में सूरः ए अलहम्द के बाद  इन्ना अनज़लना और दूसरी रकअत में क़ुल हुवाल्लाह पढ़ना मुस्तहब है।

1038.      मकरूह है कि इंसान अपनी एक दिन रात की नमाज़ों में से किसी एक में भी क़ुल हुवल्लाहु अहद न पढ़े।

1039.      सूरः ए अलहम्द और सूरः ए क़ुल को एक साँस में पढ़ना मकरूह है।

1040.      नमाज़ की पहली व दूसरी रकअत में एक ही सूरे को पढ़ना मकरूह है,  लेकिन अगर दोनों रकअतों में सूरः ए क़ुल हुवल्लाहु अहद को पढ़ा जाये तो मकरूह नही है।

रुकूउ

1041. हर रकअत में क़राअत के बाद, इतना झुकना कि हाथ घुटनों पर रखे जा सकें, रुकूउ कहलाता है।

1042. अगर कोई रुकू् की हद तक झुके, लेकिन हाथों को घुटनों पर न रखे तो यह एहतियात के ख़िलाफ़, बस एहतियात यह है कि हाथों को घुटनों पर रखे, जबकि यह बात ज़ाहिर है कि ऐसा करना वाजिब नही है।

1043. अगर रुकूउ को आम तौर पर न किया जाये, मसलन दाहिनी या बाईं तरफ़ झुका जाये, तो चाहे उसके हाथ घुटनों तक पहुँच रहे हों, सही नही है।

1044.  क़ियाम मुत्तसिल बारुकूउ वाजिब व रुक्न है (यानी रुकू में जाने से पहले सीधा खड़ा होना), नमाज़ी को चाहिए कि खड़े हो कर रुकूउ के इरादे से, रुकूउ के लिए झुके, लिहाज़ा अगर किसी दूसरे काम के इरादे से झुके, जैसे किसी चीज़ को उठाने के लिे या सजदा करने के लिए और फ़ौरन याद आ जाये कि अभी रुकू नही किया है, तो इस हालत में सीधे खड़े होकर फिर रुकूउ में जाना चाहिए, और अगर खड़े हुए बग़ैर रुकू करले तो चूँकि क़ियाम मुत्तसिल बारुकू् को पूरा नही किया है, इस लिए उसकी नमाज़ नमाज़ बातिल है।

1045. झुकना, रुकूउ के इरादे से होना चाहिए लिहाज़ा अगर इंसान किसी अन्य इरादे से झुके मसलन किसी जानवर को मारने के इरादे से झुके तो उसे रुकूउ नही माना जा सकता, बल्कि इस सूरत में चाहिए कि पहले सीधा खड़ा हो फिर दोबारा रुकूउ के इरादे से झुके, और इस काम से न रुक्न ज़्यादा होगा और न नमाज़ बातिल होगी।

1046.  अगर किसी इंसान के हाथ या घुटने अन्य लोगों से ज़्यादा भिन्न हों, मसलन उसके हाथ इतने लम्बे हों कि थोड़ा झुकने पर ही घुटनों तक पहुँच जाते हों या घुदने इतने नीचे हों कि बहुत ज़्यादा झुकने पर हाथ उन तक पहुँच पाते हों तो इस हालत में उसे आम लोगों की तरह झुकना चाहिए।

1047. जो बैठ कर रुकूउ कर रहा हो उसे इतना झुकना चाहिए कि उसका चेहरा घुटनों के सामने पहुँच जाये बल्कि बेहतर यह है कि इतना झुके कि उसका चेहरा सजदे की जगह के क़रीब पहुँच जाये।

1048. इंसान रुकूउ की हालत में जो ज़िक्र भी पढ़े वही काफ़ी है, लेकिन वह एक बार " सुबहाना रब्बियल अज़ीमि व बिहम्दिहि " या तीन बार " सुब्हान अल्लाह" कहने से कम नही होना चाहिए। 

1049. रुकूउ के ज़िक को लगातार और सही अरबी में पढ़ना चाहिए और मुस्तहब है कि उस ज़िक्र को तीन, पाँच, सात या इससे भी ज़्यादा बार कहना चाहिए।

1050. रुकूउ की हालत में इतनी देर तक बदन का साकिन रहना ज़रूरी है, जितनी देर तक वाजिब ज़िक्र पढ़ा जाये, लेकिन अगर मुस्तहब ज़िक्र को भी इस नियत से पढ़ा जाये कि इसका हुक्म भी रुकूउ के लिए दिया गया तो एहतियाते वाजिब यह है कि उसमें भी बदन साकिन रहे।

1051. अगर रुकूउ की हालत में वाजिब ज़िक्र पढ़ते वक़्त, इंसान का बदन बेइख़्तियार इतना हिलने लगे की सकून की हालत से निकल जाये तो एहतियाते वाजिब की बिना पर बदन के साकिन होने के बाद रुकूउ के ज़िक्र को दोबारा पढ़े, लेकिन अगर बदन इतना कम हिले कि आराम की हालत से न निकले या अगर ऊँगलियों को हिलाये तो कोई हरज नही है। 

1052. अगर कोई पूरी तरह रुकू में झुकने और बदन के साकिन होने से पहले जान बूझ कर रुकूउ के ज़िक्र को पढ़े तो उसकी नमाज़ बातिल है। 

1053.  अगर कोई रुकूउ का वाजिब ज़िक्र पूरा होने से पहले, जान बूझ कर अपने सर को रुकूउ से उठा ले तो उसकी नमाज़ बातिल है। और अगर भूले से सर को उठाये और रुकूउ की हालत से पूरी तरह निकलने से पहले उसे याद आ जाये कि अभी वाजिब ज़िक्र को पूरा नही पढ़ा है तो बदन के साकिन हो जाने के बाद रुकूउ के ज़िक्र को दोबारा पढ़े, और अगर रुकूउ की हालत से निकलने के बाद उसे याद आये तो उसकी नमाज़ सही है।

1054. अगर कोई रुकूउ के वाजिब ज़िक्र को पढ़ने में लगने वाली देर के बराबर रुकूउ में न ठहर सकता हो तो अगर वह रुकूउ की हालत से पूरी तरह निकलने से पहले उस ज़िक्र को पढ़ सकता हो तो उसी हालत में पढ़े और अगर न पढ़ सकता हो तो रुकूउ से उठते वक़्त पढ़ले।

1055. अगर कोई बामीरी वग़ैरह की वजह से रुकू् में साकिन न रह सकता हो तो उसकी नमाज़ सही है लेकिन उसे रुकूउ से सर उठाने से पहले, रुकूउ के वाजिब ज़िक्र को पढ़ लेना चाहिए। यानी एक बार " सुबहाना रब्बियल अज़ीमि व बिहम्दिहि " या तीन बार " सुब्हान अल्लाह" कहना चाहिए।

1056. अगर कोई इंसान रुकू् की हद तक न झुक सकता हो तो उसे किसी चीज़ का सहारा लेकर रुकूउ करना चाहिए, लेकिन अगर वह किसी चीज़ के सहारे से भी रुकूउ की हद तक न झुक सकता हो तो जितना भी झुक जाये काफ़ी है और अगर थोड़ा भी न झुक सकता हो तो रुकूउ के वक़्त बैठ जाये और बैठ कर रुकूउ करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि बाक़ी नमाज़ को पढ़े और रुकूउ के लिए सर से इशारा करे। 

1057.  अगर कोई खड़े होकर नमाज़ पढ़ सकता हो लेकिन खड़े हो कर या बैठ कर रुकूउ न कर सकता हो तो उसे रुकू् के लिए सर से इशारा करना चाहिए और अगर सर से भी इशारा न कर सकता हो तो रुकूउ की नियत से आँखों को बंद करे और रुकूउ के ज़िक्र को पढ़े और रुकूउ की हालत से निकलने की नियत से अपनी आँखों को खोल दे और अगर यह भी न कर सकता हो तो दिल में रुकूउ की नियत कर के रुकूउ के ज़िक्र को पढ़े।

1058.  अगर कोई इंसान खड़े को हो कर या बैठ कर रुकू् न कर सकता हो और सिर्फ़ बैठे हुए रुकूउ के लिए थोड़ा सा झुक सकता हो या खड़े होने की हालत में सर से इशारा कर सकता हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह दो नमाज़े पढ़े एक नमाज़ में खड़े होकर रुकूउ के लिए सर से इशारा करे और दूसरी नमाज़ में रुकूउ के वक़्त बैठ जाये और रुकूउ के लिए जितना झुक सकता हो, उतना झुक कर रुकूउ करे।

1059.  अगर कोई रुकूउ की हद तक झुकने व बदन के साकिन होने के बाद सर को उठा ले और दो बार रुकूउ के इरादे से, रुकूउ की हद तक झुके तो उसकी नमाज़ बातिल है। इसी तरह अगर कोई रुकू् की हद तक झुके और बदन के साकिन होने के बाद रुकूउ की नियत से इतना ज़्यादा झुके कि रुकूउ की हद से आगे निकल जाये और दोबारा रुकूउ की तरफ़ पलटे तो उसकी नमाज़ बातिल है। 

1060. रुकूउ का ज़िक्र पूरा करने के बाद इंसान को सीधा खड़ा होना चाहिए और जब बदन साकिन हो जाये तब सजदे में जाना चाहिए और अगर कोई जान बूझ कर सीधे खड़े होने या बदन के साकिन होने से पहले सजदे में चला जाये तो उसकी नमाज़ बातिल है। 

1061. अगर कोई कोई रुकूउ करना भूल जाये और सजदे में जाने से पहले याद आये तो उसे चाहिए कि पहले सीधा खड़ा हो फिर रुकूउ करे और अगर कोई झुके झुके ही रुकूउ में चला जाये तो उसकी नमाज़ बातिल है।  

1062. अगर पहले सजदे में माथे को ज़मीन पर रखने के बाद याद आये कि रुकूउ नही किया है तो एहतियाते वाजिब यह है कि खड़ा हो जाये और रुकूउ करे व नमाज़ को तमाम करे और दोबारा भी पढ़े, लेकिन अगर दूसरे सजदे में याद आये तो नमाज़ बातिल है।

1063. मुस्तहब है कि रुकूउ में जाने से पहले सीधे खड़े होने की हालत में तकबीर कहे और रुकूउ की हालत में घुटनों पर पीछे की तरफ़ दबाव दे, कमर को इक्सार रखे और गर्दन को कमर के बराबर रखे, दोनों क़दमों के बीच निगाह रखे, रुकूउ के ज़िक्र से पहले या बाद में सलवात पढ़े और जब रुकू्अ के बाद सीधा खड़ा हो जाये और बदन सकून की हालत में हो तो उस वक़्त कहे समिअल्लाहु लिमन हमिदः ।

1064.  औरतों के लिए मुस्तहब है कि रुकूउ की हालत में अपने हाथों को घुटनों से थोड़ा ऊपर रखे और घुटनों पर पीछे की तरफ़ दबाव न दे।

सजदा

1065. नमाज़ पढ़ने वाले के लिए ज़रूरी है कि वाजिब व मुस्तहब नमाज़ों की हर रकअत में रुकूउ के बाद दो सजदे करे। सजदा, माथे, दोनों हाथों की हथेलियों, दोनों घुटनों और दोनों पैरों के अगूँठो के सिरों को ज़मीन पर रखने का नाम है।

1066.  दो सजदे आपस में मिल कर एक रुक्न बनते है। अगर कोई इंसान नमाज़ में दोनों को जान बूझ कर या भूले से छोड़ दे, या दो सजदे ज़्यादा करले तो उसकी नमाज़ बातिल है।

1067. अगर जान बूझ कर एक सजदा कम या ज़्यादा कर दिया जाये तो नमाज़ बातिल हो जायेगी और अगर भूले से एक सजदा कम हो जाये तो उसका हुक्म बाद में बयान किया जायेगा। 

1068. अगर माथे को जान बूझ कर या भूल की वजह से ज़मीन पर न रखा जाये और अन्य सब हिस्से ज़मीन पर हों तो वह सजदा नही माना जायेगा। इसके बरअक्स (विपरीत) अगर माथा ज़मीन पर रख दिया जाये और अन्य हिस्सों को भूले से ज़मीन पर न रखा जाये या भूल की बिना पर सजदे का ज़िक्र न पढ़ा जाये तो सजदा सही है।

1069. सजदे में जो ज़िक्र भी पढ़ा जाये वही काफ़ी है लेकिन जो ज़िक्र पढ़ा जाये वह तीन बार सुबहान अल्लाह या एक बार सुबहाना रब्बियल आला व बिहम्दिहि कहने से कम न हो। मुस्तहब है कि सजदे में सुबहाना रब्बियल आला व बिहम्दिहि को तीन, पाँच या सात बार कहे। 

1070. सजदे में वाजिब ज़िक्र पढ़ते वक़्त बदन साकिन रहना चाहिए और एहतियात यह है कि अगर मुस्तहब ज़िक्र को इस नियत से पढ़ा जाये कि इसका हुक्म भी सजदे के लिए दिया गया है तो उसे पढ़ते वक़्त भी बदन का साकिन होना ज़रूरी है।

1071. अगर माथे के ज़मीन पर पहुँचने व बदन के साकिन होने से पहले जान बूझ कर सजदे का ज़िक्र पढ़ा जाये या पूरा ज़िक्र पढ़ने से पहले जान बूझ कर सर को सजदे से उठा लिया जाये तो नमाज़ बातिल है। 

1072. अगर कोई, माथे के ज़मीन पर पहुँचने व बदन के साकिन होने से पहले भूल की बिना पर सजदे के ज़िक्र को पढ़े और सर को सजदे से उठाने से पहले समझ जाये कि ग़लती हो गई है तो बदन के साकिन होने के बाद दोबारा ज़िक्र पढ़े।

1073. अगर कोई सजदे से सर उठाने के बाद समझे कि बदन के साकिन होने से पहले ज़िक्र पढ़ा था या ज़िक्र पूरा होने से पहले सजदे से सर उठा लिया था तो उसकी नमाज़ सही है। 

1074. अगर सजदे का ज़िक्र पढ़ते वक़्त, सजदे के सातों हिस्सों में से किसी एक को जान बूझ कर ज़मीन से उठाले तो नमाज़ बातिल हो जायेगी। लेकिन अगर ज़िक्र न पढ़ रहा हो तो माथे के अलावा किसी अन्य हिस्से को ज़मीन से उठा कर दोबारा रखने में कोई हरज नही है। 

1075. अगर कोई, सजदे का ज़िक्र पूरा होने से पहले, भूल से अपने माथे को ज़मीन से उठा ले तो वह उसे दोबारा ज़मीन पर नही रख सकता, इस हालत में उसे एक सजदा गिनना चाहिए।  लेकिन अगर किसी अन्य हिस्से को भूल से उठाले तो उसे दोबारा ज़मीन पर रख कर सजदे का ज़िक्र पढ़े।

1076.  पहले सजदे का ज़िक्र पूरा होने के बाद, बैठ जाना चाहिए और जब बदन साकिन हो जाये तब दूसरे सजदे में जाना चाहिए। 

1077. सजदे में, माथा रखने की जगह, घुटनों व पैरों के अंगूठे रखने की जगह से, चार मिली हुई उँगलियों से ज़्यादा, ऊँची या नीची नही होनी चाहिए।

1078.  ऐसी ढालदार ज़मीन कि जिसका ढलान सही मालूम न हो उसमें एहतियात यह है कि सजदे की हालत में माथा रखने की जगह, घुटने व पैरों के अंगूठे रखने की जगह से, मिली हुई चार ऊँगलियों से ज़्यादा ऊँची न हो और इस एहतियात को छोड़ना बेहतर नही है।  

1079. अगर सजदे में माथे को भूले से किसी ऐसी चीज़ पर रख दे जो घुटने व पैरों के अँगूठे रखने की जगह से, मिली हुई चार उँगलियों से ज़्यादा ऊँची हो और उसकी ऊँचाई इतनी हो कि देखने वाले न कहें कि यह सजदा कर रहा है तो उसे चाहिए कि वह उस चीज़ से अपना माथा उठा कर किसी ऐसी चीज़ पर रखे जिसकी ऊँचाई मिली हुई चार उंगलियों के बराबर या उससे कम हो। अगर सर का उस चीज़ से उठाना मुमकिन न हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि उस नमाज़ को पूरा करके उसे दोबारा पढ़े।

1080. जिस चाज़ पर सजदा कर रहा हो उसके और माथे के बीच कोई अन्य चीज़ नही होनी चाहिए। अतः अगर सजदागाह पर इतना मैल लगा हुआ हो कि सजदागाह पर माथा न रखा जाये तो सजदा बातिल है, लेकिन अगर सिर्फ़ सजदागाह का रंग बदला हुआ वहो तो कोई हरज नही है। 

1081. सजदे की हालत में हाथों की हथेलियों को ज़मीन पर रखना चाहिए लेकिन मजबूरी की हालत में हथेलियों को उलटा भी रख सकते हैं। अगर हथेलियों का उलटा रखना भी मुमकिन न हो तो हाथों की कलाईयों को ज़मीन पर रखे और अगर यह भी मुमकिन न हो तो कोहनियों तक का जो हिस्सा भी मुमकिन हो ज़मीन पर रखे और अगर यह भी न हो सकता हो तो बाज़ुओं को ज़मीन पर रखना काफ़ी है। 

1082. सजदे की हालत में दोनों पैरों के अंगूठों को ज़मीन पर रखना चाहिए और एहतियाते वाजिब यह है कि दोनों अंगूठों के सिरों को ज़मीन पर रखे। अगर अंगूठों के बदले पैरों की अन्य उंगलियों या पंज़े के ऊपरी हिस्से को ज़मीन पर रखा जाये या अगर अंगूठों के नाख़ुन बड़े होने की वजह से उनके सिरे ज़मीन तक न पहुँच पायें तो नमाज़ बातिल है। अंगूठों के साथ पैरों की दूसरी उंगलियों को ज़मीन पर रखने में कोई हरज नही है। 

1083. अगर किसी के पैर के अंगूठे का कुछ हिस्सा कटा हुआ हो तो बाक़ी हिस्से को ज़मीन पर रखे और अगर उसमें से कुछ भी न बचा हो या बचा हुआ हिस्सा बहुत कम हो तो उसे बाक़ी उंगलियों को ज़मीन पर रखना चाहिए और अगर उंगलिया भी न हों तो पंजे का जितना हिस्सा भी बाक़ी हो उसे ज़मीन पर रखे। 

1084. अगर कोई ग़ैरे मामूली तरीक़े से सजदा करे ंमसलन पेट और सीने को ज़मीन से चिपका दे या पैरों को बहुत ऊँचा उठाले तो अगर सजदे के सातों हिस्से भी ज़मीन पर हों तब भी एहतियाते वाजिब की बिना पर उसे दोबारा नमाज़ पढ़नी चाहिए। 

1085. सजदागाह या जिस अन्य चीज़ पर सजदा कर रहा हो वह पाक होनी चाहिए। लेकिन अगर सजदागाह नजिस फ़र्श पर रखी हो या सजदगाह का एक तरफ़ का हिस्सा नजिस हो और वह दूसरी तरफ़ के पाक हिस्से पर सजदा करे तो कोई हरज नही है। 

1086. अगर माथे पर कोई फोड़ा या उस जैसी कोई दूसरी चीज़ हो तो अगर मुमकिन हो तो माथे के सही व सालिम हिस्से को सजदे में रखे और अगर मुमकिन न हो तो ज़मीन में थोड़ा सा गढ़ा खोदले और उस फोड़े को उस गढ़े में रखे और माथे के उतने सही हिस्से को जो सजदे के लिए काफ़ी को ज़मीन पर रखे। 

1087. अगर कोई फोड़ा या ज़ख़्म पूरे माथे पर फैला हुआ हो तो माथे की दोनों तरफ़ो में से किसी एक तरफ़ सजदा करे और अगर यह मुमकिन न हो तो ठोढ़ी को ज़मीन पर रखे और अगर यह भी मुमकिन न हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि चेहरे का जो हिस्सा भी आसानी से ज़मीन पर रखा जा सकता हो उसे रखे, और अगर चेहरे का कोई भी हिस्सा ज़मीन पर रखना मुमकिन न हो तो सर का अगला हिस्सा ज़मीन पर रखे।

1088. अगर कोई अपने माथे को ज़मीन पर न रख सकता हो तो वह जितना झुक सकता हो उतना झुके और सजदागाह या कोई दूसरी चीज़ जिस पर सजदा करना सही हो, उसे किसी ऊँची चीज़ पर रख कर उस पर इस तरह अपने माथे को रखे कि देखने वाले कहें कि सजदा कर रहा है। लेकिन अगर सजदागाह को ऊपर उठा कर उसे माथे पर लगाये तो सजदा सही नही है।  लेकिन हाथों की हथेलियों, घुटनों व पैरों के अंगूठों को आम तरह से ज़मीन पर रखना चाहिए।   

1089.  अगर कोई सजदे के लिए थोड़ा सा भी न झुक सकता हो तो उसे बैठ कर सजदे के लिए सर से इशारा करना चाहिए और अगर सर को भी न हिला सकता हो तो आँखों से इशारा करे और इन दोनों हालतों में एहतियात यह है कि अगर सजदागाह को उठा कर अपने माथे पर रख सकता हो तो ऐसा ही करे, लेकिन अगर वह सर या आँखों से भी इशारा न कर सकता हो तो दिल में सजदे की नियत करे और एहतियाते वाजिब यह है कि हाथों आदि से सजदे का इशारा करे। 

1090.अगर कोई बैठ न सकता हो तो खड़े खड़े सजदे की नियत करे और अगर सर सजदे का इशारा कर सकता हो तो करे और अगर न कर सकता हो तो आँखों से सजदे का इशारा करे (यानी उन्हें सजदे की निय्यत से बंद करे और सजदे से सर उठाने की निय्यत से खोल दे)  और अगर यह भी न कर सकता हो दिल में सजदे की नियत करे और एहतियाते वाजिब की बिना पर हाथों वग़ैरह से सजदा के लिए इशारा करे।

1091.अगर सर सजदे की जगह से बे इख़्तियार उठ जाये तो अगर मुमकिन हो तो उसे दोबारा सजदे में न रखे और यह एक सजदा गिना जायेगा चाहे सजदे का ज़िक्र पढ़ा हो या न पढ़ा हो और अगर वह सर को न रोक सके और बे इख़्तियार दोबारा सजदे में चला जाये तो यह एक ही सजदा माना जायेगा अगर ज़िक्र न पढ़ा हो तो उसे पढ़ लेना चाहिए।

1092.अगर इंसान के लिए कहीं तक़ैया करना ज़रूरी हो तो उसे चाहिए कि फ़र्श वग़ैरा पर सजदा करे, और  उसके लिए ज़रूरी नही है कि वह नमाज़ पढ़ने के लिए किसी दूसरी जगह पर जाये। लेकिन अगर वहाँ पर बोरिया (चटाई), पत्थर या कोई दूसरी ऐसी चीज़ मौजूद हो जिस पर सजदा करना सही हो, और वह उन पर इस तरह सजदा कर सकता हो कि उसके तक़ैये के ख़िलाफ़ न हो, तो उसे उन पर ही सजदा करना चाहिए। 

1093.अगर किसी ऐसी चीज़ पर सजदा किया जाये जिस पर बदन साकिन न रहता हो तो बातिल है, लेकिन अगर गद्दा या कोई दूसरी चीज़ ऐसी हो कि अगर उस पर सर रखा जाये तो थोड़ा दबने और नीचे जाने के बाद उस पर बदन साकिन हो जाता हो तो उस पर सजदा करने में कोई हरज नही है।

1094.अगर कोई गारे के ऊपर नमाज़ पढ़ने पर मजबूर हो, और बदन व कपड़ों के सनने से उसे किसी ऐसी मुश्किल का सामना न हो जिसको बर्दाश्त करना उसके लिए सख़्त हो तो उसे सजदे व तशाह्हुद को आम तरीक़े के मुताबिक़ ही अंजाम देना चाहिए, लेकिन अगर उसके लिए मुश्किल व सख़्त हो तो खड़े खड़े तशह्हुद पढ़े और सजदे के लिए सर से इशारा करे और अगर सजदे व तशह्हुद को आम तरीक़े से अंजाम दे तो उसकी नमाज़ सही है। 

1095.जिस रकअत में तशह्हुद वाजिब न हो, जैसे ज़ोहर, अस्र व इशा की तीसरी रकअत, उसमें दूसरे सजदे के बाद थोड़ी देर बैठ कर बाद वाली रकअत के लिए खड़ा होना चाहिए और इस अमल को आराम करना कहते हैं। 

वह चीज़ों जिन पर सजदा करना सही है

1096.इंसान को ज़मीन और ज़मीन से पैदा होने वाली ऐसी चीज़ों पर सजदा करना चाहिए जो खाने व पहनने के काम न आती हों, (जैसे लकड़ी व पत्ते वग़ैरा) खाने व पहनने वाली चीज़ों पर सजदा करना सही नही है। इसी तरहखान से निकलने वाली चीज़ों जैसे सोना, चाँदी, हीरे,जवहारात, अक़ीक़, फ़िरोज़ा व अन्य धातुओं पर सजदा करना भी बातिल है, लेकिन खान से निकलने वाले अन्य पत्थरों जैसे संगे मरमर या काला पत्थर आदि पर सजदा करने में कोई हरज नही है। 

1097.अंगूर के ताज़े पत्ते पर सजदा करना जायज़ नही है लेकिन अगर वह सूख चुका हो तो उस पर सजदा करने में कोई हरज नही है।

1098.ज़मीन से पैदा होने वाली उन चीज़ों पर सजदा करना सही है जो जानवरों की ख़ुराक हों, जैसे घास व भूसा।

1099.जो फूल खाये न जाते हों उन पर सजदा करना सही है, लेकिन जो फूल दवा के तौर पर खाये जाते हैं जैसे गुले गांवज़बाँ या गुले बनफ़शा आदि, उन पर सजदा सही नही है। 

1100.कच्चे फलों व उन पत्तों वह सब्ज़ियों पर सजदा करना सही नही है जो कुछ शहरों में खाई जाती हों और कुछ में न खाई जाती हों, लेकिन तम्बाकू के पत्ते पर सजदा करना जायज़ है।

1101.चूने व खड़िया के ढेलों पर सजदा करना सही है, बल्कि अगर उनको भट्टी में पका भी दिया जाये तब भी उन पर सजदा करना सही है। इसी तरह मिट्टी की पक्की हुई ईंट आदि पर भी सजदा किया जा सकता है। 

1102.अगर काग़ज़ को उस चीज़ से बनाया जाये जिस पर सजदा करना सही हो जैसे लकड़ी या भूसा आदि तो उस पर सजदा किया जा सकता है। इसी तरह रूई से बने काग़ज़ पर सजदा करने में भी कोई हरज नही है। 

1103.सजदा करने के लिए सबसे अच्छी चीज़ हज़रत इमाम हुसैन (अ.) की क़ब्र की मिट्टी है। उसके बाद आम मिट्टी, उसके बाद पत्थर और उसके बाद घास फ़ूंसहै। 

1104.अगर इंसान के पास कोई ऐसी चीज़ मौजूद न हो जिस पर सजदा करना सही हो, या ऐसी चीज़ मौजूद हो मगर सख़्त गर्मी, सर्दी या तक़ैये की वजह से उस पर सजदा न कर सकता हो तो उसे अपने सूती कपड़े पर सजदा करना चाहिए और अगर उसके कपड़े सूती न होकर किसी दूसरी चीज़के बने हों तो भी उन पर सजदा कर सकता है और अगर यह मुमकिन न हो तो अपने हाथ के पंजे के ऊपरी हिस्से पर सजदा करे और अगर यह भी मुमकिन न हो तो एहतियात यह है कि खान से निकली हुई किसी चीज़ पर सजदा करे जैसे अक़ीक़ की अंगूठी वग़ैरा।

1105.अगर गारे व बारीक मिट्टी पर माथा रखने के बाद वह थोड़ा सा नीचे की तरफ़ दब जाये और फिर उस पर माथा साकिन हो जाये तो उन पर सजदा करने में कोई हरज नही है। 

1106.अगर सजदा करते वक़्त पहले सजदे में सजदागाह माथे पर चिपक जाये और उसे माथे पर से हटाये बग़ैर दूसरे सजदे में चला जाये तो इसमें कोई हरज नही है वह दो सजदे गिने जायेंगे, लेकिन बेहतर यह है कि दूसरे सजदे में जाने से पहले सजदागाह को माथे से अलग कर लिया जाये। 

1107.अगर नमाज़ पढ़ते वक़्त किसी इंसान की सजदागाह गुम हो जाये और उसके पास कोई ऐसी चीज़ भी मौजूद न हो जिस पर सजदा करना सही हो तो अगर नमाज़ के लिए वक़्त काफ़ी हो और किसी दूसरी जगह पर ऐसी चीज़मौजूद हो जिस पर सजदा करना सही हो तो इसहालत में नमाज़ को तोड़ देना चाहिए। लेकिन अगर नमाज़ के लिए वक़्त काम रह गया हो तो अगर उसके कपड़े सूती हों तो उन परसजदा करे और अगर किसी दूसरी चीज़ के बने हों तो बी उन पर सजदा करे और अगर यह मुमकिन न हो तो हथेली के ऊपरी हिस्से परसजदा करे और अगर यह भी मुमकिन न हो तो  एहतियात यह है कि खान से निकली हुई किसी चीज़ पर सजदा करे जैसे अक़ीक़ की अंगूठी वग़ैरा।

1108.अगर कोई सजदे की हालत में यह समझे कि माथा किसी ऐसी चीज़ पर रखा हुआ है जिस परसजदा करना सही नही है तो अगर मुमकिन हो तो माथे को किसी ऐसी चीज़ पर रखे जिस पर सजदा करना सही हो, लेकिन अगर नमाज़ के लिए वक़्त कम रह गाया हो तो उस हुक्म पर अमल करे जो इससे पहले मसअले में बयान किया गया है।

1109.अगर सजदा करने के बाद पता चले कि माथे को किसी ऐसी चीज़ पर रखा था जिस पर सजदा करना सही नही है, तो इसमें कोई हरज नही है। 

सजदे की मुस्तहब व मकरूह चीज़ें

1110.सजदे में कुछ चीज़ें मुस्तहब है जैसे  

i)         जो खड़े होकर नमाज़ पढ़ रहा हो, वह रुकूउ से सर उठाने के बाद जब पूरी तरह से सीधा खड़ा हो जाये तब और जो बैठ कर नमाज़ पढ़ रहा हो, वह रुकूउ से सर उठाने के बाद जब बैठ जाये तब, सजदे में जाने के लिए अल्लाहु अकबर कहे।

ii)       सजदे में जाते वक़्त, मर्द के लिए मुस्तहब है कि पहले अपने हाथों को ज़मीन पर रखे और औरत के लिए मुस्तहब कि पहले अपने घुटनों को ज़मीन पर रखे।

iii)     माथे के अलावा नाक को भी सजदागाह या उस चीज़ पर रखे जिस पर सजदा करना सही हो।

iv)     सजदे की हालत में हाथों की उंगलियों को आपस में मिला कर, हाथों को कानों की बराबर में इस तरह रखे कि इंगलियों के सिरे क़िबला रुख हों।

v)      सजदे की हालत में दुआ करे और सजदे में माँगी जाने वाली सबसे अच्छी दुआ यह है कि " या ख़ैरल मसऊलीन व या ख़ैरल मोतीन उरज़ुक़नी व उरज़ुक़ अयाली मिन फज़लिक फ़-इन्नका ज़ुल फ़ज़लिल अज़ीम " यानी जिन से सवाल किया जाता है, उनमें सबसे अच्छी ज़ात और ऐ सबसे अच्छे अता करने वाले, अपने फज़्ल से मुझे और मेरे बीवी बच्चों को रिज़्क़ दे, इस लिए कि तू बहुत बड़े फ़ज़्ल का मालिक है।    

vi)      सजदे के बाद बाईं रान पर बैठना और बायें पैर के तलवे पर दाहिनें पैर के पंजे को रखना। (इसको तवर्रुक कहते हैं)

vii)   हर सजदे के बाद, जब बैठने पर बदन साकिन हो जाये तो अल्लाहु अकबर कहना।

viii)  पहले सजदे के बाद, बैठ कर अस्तग़ फिरुल्लाह रब्बी व अतूबु इलैह कहना।

ix)     लम्बा सजदा करना और बैठने की हालत में हाथों को रानों पर रखना।

x)      दूसरे सजदे में जाने के लिए सकून की हालत में अल्लाहु अकबर कहना।

xi)     सजदे में सलवात पढ़ना।

xii)   खड़े होते वक़्त, हाथों से पहले, घुटनों को ज़मीन से उठाना।

xiii)  मर्दों को अपनी कोहनियाँ व पेट ज़मीन से नही मिलाना चाहिए और बाज़ुओं को पसलियों से अलग रखना चाहिए। लेकिन औरतों को चाहिए कि अपनी कोहनियों व पेट को ज़मीन से मिलायें और बदन के दूसरे हिस्सों को एक दूसरे से मिला कर रखें।

इनके अलावा सजदे की अन्य मुस्तहब चीज़ें बड़ी किताबों में लिखी हुई हैं।

1111.सजदे की हालत में क़ुरआन पढ़ना मकरूह है। इसी तरह सजदे की जगह से धूल मिट्टी को साफ़ करने के लिए फ़ूँक मारना भी मकरूह है, और अगर फ़ूँक मारते वक़्त दो हर्फ़ ज़बान से निकलजायें तो नमाज़ बातिल है। इनके अलावा कुछ और भी मकरूह चीज़ें हैं जो बड़ी किताबों में बयान की गई हैं। 

क़ुरआन के वाजिब सजदे

1112.क़ुरआन के चार सूरों में सजदे की आयतें हैं। सूरः ए अलिफ़ लाम तनज़ील (32) सूरः ए हाम मीम सजदा (41) सूरः ए नज्म (53) सूरः ए इक़रा (96) जब भी इंसान इन सूरों की सजदे वाली आयत को पढ़े या सुने फ़ौरन सजदा करे और अगर सजदा करना भूलजाये तो जब भी याद आये सजदा करे क्योंकि यह सजदा वाजिब है, और अगर वह ख़ुद उसआयत को न सुने बल्कि उसके कानों में कहीं से अचानक उसकी आवाज़ आ जाये तो एहतियाते वाजिब यह है कि उस हालत में भी सजदा करे। 

1113.अगर इंसान सजदे की आयत पढ़ते वक़्त उसे किसी दूसरे से भी सुने तो उसको दो सजदे करने चाहिए।

1114.अगर नमाज़ के अलावा, इंसान सजदे की हालत में, सजदे की आयतको पढ़े या सुने तो सर को सजदे से उठा कर दोबारा सजदा करे। 

1115.अगर सजदे की आयत को रेड़ियो,टीवी, टेप रिकोर्डर या कम्पयूटर आदि से सुने तो सजदा करना ज़रूरी नही है। लेकिन अगर रेडियो या टी.वी. स्टेशन से डारैक्ट सुने (रेडियों के बग़ैर) मसलन अगर वहाँ सजदे की आयत माइक पर पढ़ी जा रही हो तो उसे सुनकर सजदा करना ज़रूरी है।  

1116.एहतियाते वाजिब यह है कि क़ुरआन के वाजिब सजदों को खाने व पहनने की चीज़ों पर न किया जाये, लेकिन वह अन्यशर्तें जो नमाज़ के सजदे में जरूरी हैं, वह इसमें ज़रूरी नही है। 

1117.क़ुरआन के वाजिब सजदों को इस तरह करना चाहिए कि देखने वाला कहे कि इसने सजदा किया है। यानी नियत व सजदे का ज़ाहिरी शक्ल काफ़ी है। 

1118.क़ुरआन के सजदे के लिए अगर अपने सर को सजदे की नियत से ज़मीन पर रख दे तो काफ़ी है, ज़िक्र पढ़ना ज़रूरी नही है, लेकिन बेहतर है कि सजदे की हालतमें ज़िक्र पढ़ा जाये औरसबसे अच्छा ज़िक्र यह है " ला इलाहा इल्लल्लाहु हक़्क़न हक़्का, ला इलाहा इल्लल्लाहु ईमानन व तसदीक़ा, ला इलाहा इल्लल्लाहु अबूदीयतन व रिक़्क़ा सजदतु लका या रब्बि तअब्बुदन व रिक़्क़ा, ला मुसतनकेफ़न व ला मुस्तकबिरा बल अना अब्दुन ज़लीलुन ज़ीफ़ुन ख़ाइफ़ुन मुस्तजीर।"

1119.क़ुरआन के वाजिब सजदे के लिए तकबीरतुल एहराम, तशह्हुद व सलाम नही है। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि सजदे से सर उठाने के बाद अल्लाहु अकबर कहे।

तशह्हुद

1120.इंसान को चाहिए कि हर वाजिब नमाज़ की दूसरी रक्त में और मग़रिब की तीसरी और ज़ोहर, अस्र व इशा की चौथी रकअत में दूसरे सजदे के बाद बैठ जाये और जब बदन साकिन हो तो तशह्हुद पढ़े यानी कहे कि अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाहु वहदहु ला शरीका लहु व अशहदु अन्ना मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलुहु अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मदिन व आलि मुहम्मद।

1121.तशह्हुद के अलफ़ाज़ सही अरबी में व जिस तरह आम तौर पर लगातार कहे जाते हैं, कहे जायें।

1122.अगर कोई तशह्हुद पढ़ना भूल जाये और खड़ा हो जाये और रुकूउ में जाने से पहले याद आये कि तशह्हुद नही पढ़ा है तो बैठ कर तशह्हुद पढ़े और दोबारा खड़े होकर उस रकअत में जो पढ़ना चाहिए उसे पढ़े और नमाज़ को ख़त्म करे। लेकिन अगर रुकूउ की हालत में या उसके बाद याद आये कि तशह्हुद नही पढ़ा है तो नमाज़ को ख़त्म करे और सलाम के बाद तशह्हुद को कज़ा की नियतसे पढ़े और तशह्हुद भलने की वजह से दो सजद ए सह्व भी करे। 

1123.मुस्तहब है कि तशह्हुद पढ़ते वक़्त बाईं रान पर बैठे और दाहिने पैर के पंजे को बायें पैर के तलवे पर रखे और तशह्हुद पढ़ने से पहले कहे कि अलहम्दु लिल्लाह या कहे बिस्मिल्लाहि व बिल्लाहि वलहम्दु लिल्लाह व ख़ैरुल असमा ए लिल्लाह। यह भी मुस्तहब है कि हाथों की उंगलियों को आपस में मिला कर हाथों को रानों पर रखे, दामन पर निगाह रहे और तशह्हुद के बाद कहे व तक़ब्बल शफ़ा-अता-हु वरफ़अ दरा-जता-हु। और एहतियातहै कि दूसरे तशह्हुद में इस जुमले को क़स्दे क़ुरबत मुतलक़ा के उनवान से कहे। 

1124.औरतों के लिए मुस्तहब है कि वह तशह्हुद पढ़ते वक़्त अपनी दोनों रानों को आपस में मिला लें।

सलाम

1125.आखिरी रकअत में तशह्हुद के बाद आराम से बैठ कर कहे अस्सलामु अलैका अय्युहन नबीयु वरहमतुल्लाहि व बरकातुहु। इसके बाद कहे अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि व बरकातुहु या यह कहे अस्सलामु अलैना व अला इबादिल्लाहिस सालिहीन, लेकिन अगर इस सलाम को कहे तो एहतियाते वाजिब यह है कि इसके बाद कहे अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाहि व बराकातुहु।

1126.अगर कोई नमाज़का सलाम भूल जाये और उसको नमाज़ की शक्ल बिगड़ने या कोई ऐसा काम करने से पहले याद आजाये जिसे जान बूझ कर या भूल से करने नमाज़ बातिल हो जाती हो, जैसे क़िबले की तरफ़ कमर करना, तो उसे फ़ौरन सलाम पढ़ लेना चाहिए उसकी नमाज़ सही है।

1127.अगर कोई ऐसा काम करने के बाद, जो नमाज़ को बातिलकरदेता हो, याद आये कि सलाम नही पढ़ा है तो  उसकी नमाज़ बातिल है। और अगर इतनी देर के बाद याद आये जब नमाज़ की शक़्ल बिगड़ चुकी हो लेकिन उसने कोई ऐसा काम नकिया हो जो नमाज़ को बातिल करदेता हो तो उसे चाहिए कि फ़ौरन सलाम पढ़े, उसकी नमाज़ सही है और उसके लिए मुस्तहब है कि दो सजदए सह्व भी करे। 

तरतीब

1128.      अगर जान बूझ कर नमाज़ की तरतीब को बिगाड़ दे, मसलन सूरः को हम्द से पहले पढ़ॉले या सजदे रुकूउ से पहले करले तो नमाज़ बातिल है।

1129.      अगर किसी रुक्न (जिनको छोड़ने से नमाज़ बातिल हो जाती है) को भूल जाये और उसके बाद वाले रुक्नको पूरा करदे, जैसे रुकूउ करने से पहले दो सजदे करे तो नमाज़ बातिल है।

1130.      अगर किसी रुक्न को भूल जाये और उसके बाद वाली ऐसी चीज़ को पढ़ले जो रुक्न न हो, जैसे दो सजदे करने से पहले तशह्हुद पढ़ ले तो ऐसी हालत में पहले उस भले हुए रुक्न को पढ़े और उसके बाद उस चीज़ को दोबारा पढ़े जिसे ग़लती से पहले पढ़ लिया था और एहतियाते मुस्तहब यह है कि हर इज़ाफ़ी काम के लिये दो सजद ए सह्व करे।

1131.      अगर किसी ग़ैर रुक्नी वाजिब को भूल जाये और वह वाजिब, मुस्तक़िल तौर पर वाजिब हो, जैसे हम्द व सूरः तो अगर याद आने पर उसकी तरफ़ पलटने से एक रुक्न ज़्यादा होता हो तो उसकी तरफ़ न पलटे, नमाज़ सही है। जैसे अगर हम्द पढ़ना भूल जाये और रुकूउ या उसके बाद आये तो उसकी नमाज़ सही है, और एहतियाते मुस्तहब यह है कि बाद में दो सजद ए सह्व करे। और अगर उसकी तरफ़ पलटने से रुक्न ज़्यादा न होता हो तो पहले भूली हुई चीज़ को पढ़े और बाद में जिस चीज़ को ग़लती से पढ़ लिया हो उसे दोबारा पढ़े और एहतियाते वाजिब यह है कि जो चीज़ ज़्यादा हुई हो उसके लिए दो सजद ए सह्व भी करे। लेकिन अगर छुटने वाला वाजिब मुस्तक़िल न हो, बल्कि किसी दूसरे वाजिब के तहत हो जैसे सजदे का ज़िक्र, तो अगर वह असली वाजिब के बाद याद आये, जैसे सजदे से सर उठाने के बाद याद आये कि सजदे का ज़िक्र नही पढ़ा है तो उसकी नमाज़ सही है और मुस्तहब है कि नमाज़ के बाद दो सजद ए सह्व करे।    

1132.      अगर पहले सजदे को दूसरे सजदे के ख़्याल से या दूसरे सजदे को पहले के ख़्याल से करे तो उसकी नमाज़ सही है और उसका पहला सजदा, पहला और दूसरा सजदा, दूसरा ही माना जायेगा।

मुवालात (फ़ौरन एक के बाद एक पढ़ना)

1133.      इंसान को नमाज़ मवालात के साथ पढ़नी चाहिये, यानी नमाज़ के कामों के जैसे रुकूउ, सजदे, तशह्हुद व...के बीच ज़्यादा फ़ासला नही करना चाहिए।  इसी तरह जो चीज़ें नमाज़ में पढ़ी जाती हैं उन्हें उसी तरीक़े से पढ़े जिस तरह आम तौर पर पढ़ी जाती हैं अगर उनके बीच इतना फ़ासला करदे कि देखने वाला यह न कह सके कि नमाज़ पढ़ रहा है तो नमाज़ बातिल है चाहे भूल कर ही ऐसा किया हो।

1134.      अगर नमाज़ में जानबूझ कर उसके हरफ़ो और लफ़ज़ों के बीच फ़ासला रखे और फ़ासेला इतना ज़्यादा न हो कि नमाज़ की शक्ल बिगड़ जाये तो उसकी नमाज़ बातिल नही होगी। और अगर भूल कर ऐसा करे तो अगर बाद वाले रुक्न में मशग़ूल न हुआ तो उन्हें दोबारा आम व सही तरीक़े से पढ़ना ज़रूरी है और अगर बाद वाले रुक्न में दाख़िल हो चुका हो तो उसकी नमाज़ सही है। लेकिन अगर तकबीरतुल एहराम में उसके लफ़ज़ों के बीच इतना फ़ासला करदे कि उसकी शक्ल व सूरत बदल जाये तो नमाज़ बातिल है।

1135.      रुकू, सजदे व क़ुनूत को लम्बा करने और बड़े बड़े सूरेः पढ़ने से मवालात ख़त्म नही होती है।

क़ुनूत

1136.      हर वाजिब व मुस्तहब नमाज़ की दूसरी रकअत में क़राअत के बाद और रुकूउ से पहले क़ुनूत पढ़ना मुस्तहब है,  और नमाज़े वित्र चूँकि कि एक ही रकअत है, इसलिए उसमें पहली रकअत में ही रुकूउ से पहले क़ुनूत पढ़ना मुस्तहब है। इसी तरह नमाज़े जुमा की दोनों रकअतों में क़ुनूत पढ़ना मुस्तहब है और उन्हें पहली रकअत में रुकूउ से पहले और दूसरी रकअत में रुकूउ के बाद पढ़ना चाहिए। नमाज़े आयात में पाँच क़ुनूत हैं और ईदे फ़ित्र व ईदे क़ुरबान की नमाज़ में पहली रकअत में पाँच और दूसरी रकअत में चार क़ुनूत हैं।

1137.      अगर क़ुनूत पढ़ना चाहे तो हाथों को चेहरे के सामने तक उठाये, मुस्तहब है कि दोनों हथेलियाँ आपस में मिली हों और उनका रुख आसमान की तरफ़ हो, अंगूठों के अलावा दोनो हाथों की उंगलियाँ आपस में मिली रहें और नज़र हथेलियों पर हो।

1138.      क़ुनूत में जो ज़िक्र भी पढ़ा जाये काफ़ी है यहाँ तक कि अगर एक बार सुबहान अल्लाह कह दिया जाये तो भी काफ़ी है, लेकिन बेहतर है कि यह दुआ पढ़े ला इलाहा इल्लल्लाहुल हलीमुल करीम, ला इलाहा इल्लल्लाहुल अलीयुल अज़ीम, सुबहान अल्लाहि रब्बिस समावातिस सबए व रब्बिल अरज़ीनस सबए व मा फ़ीहिन्ना व मा बैनाहुन्ना व रब्बिल अर्शिल अज़ीम, व अलहम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन।      

1139.      क़ुनूत को ऊँची आवाज़ से पढ़ना मुस्तहब है, लेकिन जो इंसान नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ रहा हो अगर उसकी आवाज़ इमाम तक पहुँचे तो उसका ऊँची आवाज़ में क़ुनूत पढ़ना मुस्तहब नही है।

1140.      अगर क़ुनूत को जानबूझ कर छोड़ दे तो उसकी क़ज़ा नही है और अगर भूले से छुट जाये और रुकूउ में जाने से पहले याद आ जाये तो मुस्तहब है कि खड़े हो कर पहले क़ुनूत पढ़े फिर रुकूउ में जाये और अगर रुकूउ में याद आये  तो रुकूउ के बाद क़ज़ा करना मुस्तहब है और अगर सजदे में याद आये तो मुस्तहब है कि नमाज़ के सलाम के बाद कज़ा करे।