1145. बारह चीज़ें नमाज़ को बातिल कर देती हैं और उन्हें मुबतेलाते नमाज़ कहते हैं:
एक- अगर नमाज़ के दरमियान नमाज़ की शर्तों में से कोई एक शर्त ख़त्म हो जाये, जैसे नमाज़ के दौरान नमाज़ी का जिस्म या लिबास नजिस हो जाये।
दो- अगर नमाज़ के दरमियान, जान बूझ कर या भल चूक की बिना पर या मजबूरी की वजह से कोई ऐसा काम करे जिससे वुज़ू टूट जाता हो, जैसे पेशाब करना, लेकिन जो इंसान पेशाब पख़ाने को न रोक सकता हो,अगर वह वुज़ू के अहकाम में बताये गये क़ायदों पर अमल करे तो उसकी नमाज़ बातिल नही होगी। इसी तरह अगर नमाज़ की हालत में मुस्तेहाज़ः औरत को ख़ून आ जाये और उसने मुस्तेहाज़ः के लिये मुऐय्यन (निश्चित) तरीक़े पर अमल किया हो तो उसकी नमाज़ सही है।
1146. अगर कोई बेइख़्तियार सो जाये और उसे मालूम न हो कि नमाज़ के बीच में सोया या नमाज़ के बाद तो उसे दोबारा नमाज़ पढ़नी चाहिए। लेकिन अगर उसे नमाज़ के ख़त्म होने के बारे में मालूम हो मगर शक करे कि नींद नमाज़ के बीच आई थी या नमाज़ के बाद तो उसकी नमाज़ सही है।
1147. जिसको मालूम है कि अपने इख़्तेयार से सो गया था लेकिन यह शक है कि नमाज़ के बाद सोया था या नमाज़ के दौरान में, तो उसकी नमाज़ सही है।
1148. अगर सजदे की हालत में नींद से जागे और शक करे कि यह नमाज़ का आख़िरी सजदा है या शुक्र का सजदा है तो उसकी नमाज़ सही है।
1149. अगर कोई नमाज़ में अदब की वजह से भी हाथों पर हाथ रखले, चाहे सुन्नियों की तरह न हो, तो एहतियाते वाजिब की बिना पर नमाज़ को दोबारा से पढ़े, लेकिन अगर भूले से या मजबूरी की वजह से हो या किसी दूसरे काम की वजह से मसलन हाथ को खुजाने के लिये हाथ पर हाथ रखे तो कोई हरज नही है।
हम्द के बाद आमीन कहने से नमाज़ बातिल हो जाती है, लेकिन अगर भूल या तक़ैय्ये की वजह से कहे तो नमाज़ बातिल नही है।
अगर जान बूझ कर या भूले से क़िबले की तरफ़ पीठ कर ले या क़िबले के दाहिनी या बायीं तरफ़ मुड़ जाये, बल्कि अगर जान बुझ कर इतना मुड़ जाये कि यह न कहा जो सके कि इसका क़िबले की तरफ़ रुख है, चाहे वह दायें बायें न भी हो, तो भी उसकी नमाज़ बातिल है।
1150. अगर जान बूझ कर या भूले से सर को दाहिनी या बायीं तरफ़ इतना मोड़ दे कि पीठ के पीछे देख सके तो नमाज़ बातिल है, लेकिन अगर सर को थोड़ सा मोड़ ले तो नमाज़ बातिल नही होगी,चाहे जान बूझ कर ऐसा करे या भूल चूक की बिना पर।
अगर नमाज़ में जान बूझ कर एक कलेमा कहे और उसको किसी अर्थ में इस्तेमाल करे तो नमाज़ बातिल है चाहे वह एक हर्फ़ हो या ज़्यादा, लेकिन अगर भूले से ऐसा हो जाये तो नमाज़ बातिल नही होती।
1151. अगर नमाज़ में एक ऐसा लफ़्ज़ बोले जिसमें सिर्फ़ एक हर्फ़ हो जैसे "क़े" यह अरबी ज़बान का लफ़्ज़ है और इसका अर्थ चौकस रहना है, अगर कोई इसका अर्थ जानता हो और नमाज़ में इसे बोल कर इसको इसी के अर्थ में इस्तेमाल करे तो नमाज़ बातिल हो जायेगी। लेकिन अगर उसके अर्थ की तरफ़ मुतवज्जे हो पर उसका इरादा न करे तो नमाज़ बातिल नही होगी। इसी तरह अगर किसी लफ़्ज़ का कोई मतलब न हो और वह भी उसे किसी अर्थ में िस्तेमाल न करे तो अगर वह दो हर्फ़ या इससे ज़्यादा हों तो एहतियाते वाजिब की बिना पर नमाज़ बातिल हो जायेगी।
1152. नमाज़ की हालत में खाँसने, डकार लेने और आह भरने में कोई हरज नही है लेकिन आख व आह जैसे दो हर्फ़ वाले लफ़्ज़ों को अगर जान बूझ कर कहा जाये तो नमाज़ बातिल हो जायेगी।
1153. अगर किसी लफ़्ज़ को ज़िक्र की नीयत से कहे जैसे "अल्लाहु अकबर" और कहते वक़्त आवाज़ को ऊँचा कर दे ताकि ुससे दूसरों को कुछ समझा सके तो इसमें कोई हरज नही है। लेकिन अगर िसी लफ़्ज़ को दूसरों को कुछ समझाने के लिये कहे तो चाहे ज़िक्र की नियत भी हो तब भी नमाज़ बातिल हो जायेगी।
1154. नमाज़ की हालत में क़ुरआन पढ़ने, उन चार सूरों को छोड़ कर जिनमें सजदे की आयत है और जिनका ज़िक्र जनाबत के अहकाम में किया गया है, और दुआ माँगने में कोई हरज नही है, लेकिन एहतियाते वाजिब यह है कि दुआ अरबी ज़बान में हो।
1155. अगर हम्द व सूरे की कुछ आयतों को या रूकू व सजदे के ज़िक्र को या तसबीहात को जान बूझ कर या एहतियान कई बार कहे तो इसमें कोई हरज नही है, लेकिन अगर वसवसे की वजह से कई बार कहे तो नमाज़ में िशकाल है।
1156. नमाज़ की हालत में किसी को सलाम नही करना चाहिये, लेकिन अगर कोई उसे सलाम करे तो ुसे इस तरह जवाब दे कि सलाम का ज़िक्र पहले हो, यानी इसतरह कहे कि अस्सलमु अलैकुम या सलामुन अलैकुम यानी अलैकुमुस सलाम नही कहना चाहिए।
1157. िंसान को चाहिए कि सलाम का जवाब फ़ौरन दे चाहे नमाज़ की हालत में हो या नमाज़ न पढ़ रहा हो और अगर जानबूझ कर या भूले से सलाम का जवाब देने में इतनी देर कर दे कि अगर जवाब दे तो वह उस सलाम का जवाब न समझा जाये तो अगर नमाज़ पढ़ रहा हो तो जवाब न दे और अगर हालते नमाज़ में नही है तो जवाब देना वाजिब नही है।
1158. सलाम का जवाब इस तरह देना चाहिए कि सलाम करने वाला सुन ले, लेकिन अगर सलाम करने वाला बहरा है तो ज़ोर से बोले या इशारे से इस तरह जवाब दे कि वह सलाम के जवाब की तरफ़ मुतवज्जे हो जाये।
1159. नमाज़ पढ़ने वाले को सलाम का जवाब, जवाब के इरादे से देना चाहिये न कि कुछ आयतों की तिलावत या दुआ की नीयत से।
1160. अगर कोई नामहरम मर्द औरत को या नामहरम औरत मर्द को या अच्छे बुरे को समझने वाला कोई बच्चा किसी नमाज़ी को सलाम करे तो नमाज़ी उसका जवाब दे सकता है और बेहतर यह है कि दुआ की नीयत से जवाब दे।
1161. अगर नमाज़ी सलाम का जवाब न दे तो गुनाहगार होगा लेकिन उसकी नमाज़ सही है।
1162. अगर कोई नमाज़ी को ग़लत सलाम करे, यानी इस तरह कहे कि सलाम वह समाल न समझा जाये तो उसका जवाब देना वाजिब नही है और अगर सलाम समझा जाये तो उसका जवाब देना वाजिब है और बेहतर है कि दुआ की नीयत से जवाब दे।
1163. अगर कोई हँसी, मज़ाक़ के तौर पर सलाम करे तो उसका जवाब देना वाजिब नही है और एहतियाते वाजिब यह है कि ग़ैर मुस्लिम मर्द व औरत के सलाम के जवाब में सिर्फ़. "अलैक" कहे।
1164. अगर कोई किसी गिरोह को सलाम करे तो उन सब पर सलाम का जवाब देना वाजिब है लेकिन अगर उनमें से कोई एक इंसान भी जवाब दे दे तो काफ़ी है।
1165. अगर कोई इंसान, कुछ आदमियों को सलाम करे और उनमें से वह इंसान ुसे सलाम का जवाब दे, जिसे सलाम करने की उसने नियत न की हो तो उन बाक़ी आदमियों पर जवाब देना वाजिब है।
1166. अगर कोई इंसान कुछ आदमियों को सलाम करे और जिनको सलाम करे अगर उनमें से कोई नमाज़ पढ़ रहा हो और ुसे शक हो कि सलाम करने वाले ने मेरा भी क़स्द किया है कि नही तो उसको जवाब नही देना चाहिये। इसी तरह अगर उसे मालूम हो कि सलाम करने वाले ने मेरा भी क़स्द किया है लेकिन अगर दूसरा जवाब दे दे तो उस नमाज़ी को जवाब नही देना चाहिये, लेकिन अगर दूसरे लोग जवाब न दें तो नमाज़ी को जवाब देना चाहिये।
1167. सलाम करना मुस्तहब है और इसके लिए बहुत ताकीद की गई है कि सवार पैदल को , खड़ा हुआ इंसान बैठे हुए को और छोटा बड़े को करे।
1168. अगर दो इंसान, एक साथ एक दूसरे को सलाम करें तो एहतियाते वाजिब है कि दोनो एक दूसरे को जवाब दे।
1169. नमाज़ पढ़ते वक़्त के अलावा मुस्तहब है कि सलाम का जवाब सलाम से बेहतर दिया जाये, जैसे अगर कोई कहे सलामुन अलैकुम तो जवाब में कहना चाहिए व अलैकुमुस सलाम व रहमतुल्लाहि व बराकातुहु।
साँतवी चीज़ जिससे नमाज़ बातिल हो जाती है वह आवाज़ के साथ हँसना (यानी क़हक़हा लगाना) है। बल्कि ेहतियाते वाजिब यह है कि अगर आवाज़के साथ जान बूझ कर हँसा जाये तो नमाज़ बातिल है। लेकिन अगर भूल की वजह से इस तरह हँसा जाये कि नमाज़ की सूरत बिगड़ जाये तो नमाज़ बातिल है। मगर मुस्कुराने से नमाज़ बातिल नही होती है।
1170. अगर हँसी की आवाज़ को रोकने के लिये अपने पर इस तरह कन्ट्रोल करे कि ुसकी हालत बदल जाये, मसलन रंग सुर्ख़ हो जाये, और अगर यह इतना ज़्यादा हो कि नमाज़ की हालत से ख़ारिज हो जाये तो उसकी नमाज़ बातिल है।
दुनयावी कामों के लिये जान बूझ कर ज़ोर से रोना नमाज़ को बातिल कर देता है और एहतियाते वाजिब यह है कि दुनयावी काम के लिये बग़ैर आवाज़ के भी न रोये, लेकिन अगर अल्लाह के ख़ौफ़े या आख़ेरत के लिये रोया जाये तो चाहे वह धीमे हो या ज़ोर से, नमाज़ बातिल नही होती है, बल्कि यह एक बेहतरीन अमल है।
जिन कामों से नमाज़ की सूरत बिगड़ जाती हो जैसे तालियाँ बजाना, नाचना और उछलना क़ूदना वग़ैरह, उन से नमाज़ बातिल हो जाती है,चाहे वह काम कम हो या ज़्यादा, जान बूझ कर किये जायें या भूले से, लेकिन जिन कामों से नमाज़ की सूरत न बिगड़ती हो उनको करने में कोई हरज नही है, जैसे हाथ से इशारा करना।
1171. अगर नमाज़ में इतनी देर ख़ामोश हो जाये कि नमाज़ की सूरत बाक़ी न रहे तो नमाज़ बातिल है।
1172. अगर नमाज़ में कोई काम करे या कुछ देर ख़ामौश रहे फिर शक करे कि इतनी देर ख़ामोश रहने या िस काम को करने से नमाज़ की शक्ल बिगड़ी है या नही तो उसकी नमाज़ सही है।
अगर नमाज़ पढ़ते वक़्त इस तरह खाया पिया जाये कि नमाज़ की सूरत ख़त्म हो जाये तो नमाज़ बातिल हो जायेगी है। यहाँ तक कि अगर नमाज़ की सूरत न भी बिगड़े तब भी एहतियाते वाजिब की बिना पर नमाज़ बातिल हो जायेगी।
1173. अगर नमाज़ की हालत में खाने के उन ज़र्रों को निगललिया जाये जो मुँह में मसूड़ों वग़ैरा पर लगे रह जाते हैं तो ुससे नमाज़ बातिल नही होती। लेकिन अगर क़ंद या चीनी या इसी क़िस्म की कोई अन्य चीज़ मुँह में रह गयी हो और उसका इरादा यह हो कि यह नमाज़ की हालत में आहिस्ता आहिस्ता पानी होकर अंदर चली जाये तो नमाज़ में इशकाल है।
अगर दो या तीन रकअती नमाज़ में रकअतों के बारे में शक हो या चार रकअती नमाज़ में पहली और दूसरी रकअत के बारे में शक हो तो नमाज़ बातिल है।
अगर नमाज़ के अरकान में से किसी रुक्न को जान बूझ कर या भूले से कम या ज़्यादा करदे तो नमाज़ बातिल हो जाती है। इसी तरह जो चीज़ रुक्न नही है अगर उसे जान बूझ कर कम या ज़्यादा करदे तो भी नमाज़ बातिल हो जाती है।
1174. अगर कोई नमाज़ के बाद शक करे कि नमाज़ पढ़ते वक़्त, नमाज़ को बातिल करने वाला, कोई काम किया है या नही तो उसकी नमाज़ सही है।
1175. नमाज़ की हालत में दायें बायें देखना, चेहरे को दाहिनी या बाईं तरफ़ मोड़ना, दाढ़ी या हाथों से खेलना, उगलियों को उँगलियों में फँसाना, थूकना, क़ुरआन या किताब या अंगूठी परलिखी हुई किसी चीज़ को पढ़ना, हम्द या सूरः या ज़िक्र पढ़ते हुए किसी की बात सुनने के लिये चुप हो जाना और हर वह काम जो नमाज़ में ख़ुज़ू व ख़ुशू को खत्म कर दे मकरूह है।
1176. नींद की हालत में और पेशाब, पखाना रोक कर नमाज़ पढ़ना मकरूह है इसी तरह इतना चुस्त मोज़ा पहनकर भी नमाज़ पढ़ना मकरूह है जिससे पैर भिंचता हो। इनके अलावा भी कुछ और मकरूह चीज़ें हैं जो बड़ी किताबों में दर्ज हैं।
1177. वाजिब नमाज़ के अपने इख़्तियार से तोड़ना हराम है, लेकिन माल या जान की हिफ़ाज़त और बदनी व माली नुक़्सान से बचने के लिये नमाज़ को तोड़ने में कोई हरज नही है।
1178. अगर नमाज़ी की अपनी जान या किसी ऐसी जान, जिसका बचाना वाजिब हो या ऐसे माल की हिफ़ाज़त जिसका बचाना वाजिब हो, नमाज़ तोड़े बग़ैर मुमकिन न हो तो नमाज़ का तोड़ देना चाहिए। लेकिन किसी मामूली से माल को बचाने के लिए नमाज़ को तोड़ना मकरूह है।
1179. अगर नमाज़ के लिए वक़्त काफ़ी हो और नमाज़ के दौरान क़र्ज़ ख़्वाह अपना कर्ज़ माँगने आ जाये तो अगर हालते नमाज़ में अदा कर सकता हो तो उसी हालत में अदा कर दे और अगर नमाज़ तोड़े बग़ैर क़र्ज़ अदा करना मुमकिन न हो तो नमाज़ तोड़ दे और क़र्ज़ अदा करने के बाद नमाज़ पढ़े।
1180. अगर नमाज़ पढ़ते हुए पता चले कि मस्जिद नजिस है, तो अगर नमाज़के लिए वक़्त कम हो तो नमाज़ को तमाम करे, लेकिन अगर वक़्त काफ़ी हो और मस्जिद को पाक करने से नमाज़ की शक्ल न बिगड़ती हो तो उसी हालत में मस्जिद को पाक करे लेकिन अगर नमाज़ की शक्ल ब्गड़ती हो तो नमाज़ को तोड़ दे और मसजिद को पाक करने के बाद नमाज़ पढ़े।
1181. जिन मौक़ों पर नमाज़ को तोड़ना ज़रूरी हो, अगर न तोड़े तो वह गुनाहगार है, लेकिन उसकी नमाज़ सही है, अगरचे एहतियाते मुसतहब यह है कि नमाज़ दोबारा पढ़े।
1182. अगर रूकू की हद तक झुकने से पहले याद आये कि आज़ान व इक़ामत नही कही है और नमाज़ के लिए वक़्त भी काफ़ी हो तो बेहतर है कि आज़ान व इक़ामत कहने के लिए नमाज़ को तोड़ दे।