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410  मुस्तेहाज़ -ए- क़लीला को वुज़ू के और मुस्तेहाज़ा -ए- मुतवस्सेता व कसीरा को ग़ुस्ल व वुज़ू के फ़ौरन बाद नमाज़ में मशग़ूल हो जाना चाहिए। लेकिन अज़ान व अइक़ामत कहने और नमाज़ से पहले की दुआओं को पढ़ने में कोई हरज नही है और नमाज़ की हालत में भी क़ुनूत जैसे मुसतहब कामों को अंजाम दिया जा सकता है।

411  अगर मुस्तेहाज़ा औरत ग़ुस्ल और नमाज़ के दरमियान फ़ासला करदे तो उसे दोबारा ग़ुस्ल करके फ़ौरन नमाज़ पढ़नी चाहिए। लेकिन अगर ख़ून फ़र्ज (योनी) के अंदर न आया हो तो दोबारा ग़ुस्ल व वुज़ू करना लाज़िम नही है।

412  मुस्तेहाज़ा औरत पर वाजिब है कि ग़ुस्ल व वुज़ू के बाद जहाँ तक मुमकिन हो रूई के ज़रिये ख़ून को बाहर निकलने से रोके, अगर इसमें कोताही करे और ख़ून बाहर आजाये तो नमाज़ को दोबारा पढ़ना चाहिए, बल्कि एहतियाते वाजिब यह लहै कि दोबारा ग़ुस्ल व वुज़ू करे तब नमाज़ पढ़े।

413  अगर ग़ुस्ल करते वक़्त ख़ून बंद न हो तो ग़ुस्ल सही है। लेकिन अगर ग़ुस्ल  के दरमियान मुतवस्सेता कसीरा में बदल जाये तो दोबारा ग़ुस्ल करना वाजिब है।

414  एहतियाते वाजिब यह है कि रोज़े दार औरत जहाँ तक मुमकिन हो पूरे दिन ख़ून को बाहर निकलने से रोके।

415  वह मुस्तेहाज़ा औरत जिस पर ग़ुस्ल वाजिब है, उसका रोज़ा सिर्फ़ इसी सूरत में सही है कि उस पर नमाज़ के लिए दिन में जो ग़ुस्ल वाजिब हैं उनको अंजाम दे। एहतियाते मुस्तहब यह है कि जिस दिन रोज़ा रखना चाहती हो उससे पहली रात में मग़रिब व इशा से पहले ग़ुस्ल करे।

416  अगर कोई औरत अस्र की नमाज़ के बाद मुस्तेहाज़ा हो जाये और ग़ुरेबे आफ़ताब तक ग़ुस्ल न करे तो उसका रोज़ा सही है।

417  अगर नमाज़ से पहले औरत का इस्तेहाज़ा क़लीला से मुतवस्सेता या कसीरा में तबदील हो जाये तो उसे वह काम करने होंगे जो मुतवस्सेता या कसीरा के लिए बयान किये गये हैं। अगर मुतवस्सेता कसीरा में बदल जाये तो इस्तेहाज़ा -ए- कसीरा के काम अंजाम देने होंगे, अगर इस्तेहाज़ा-ए- मुतवस्सेता के लिए ग़ुस्ल कर लिया हो तो उसका कोई फ़ायदा नही है इस्तेहाज़ा- ए- कसीरा के लिए दोबारा ग़ुस्ल करना होगा।

418 

अगर नमाज़ के पढ़ते वक़्त औरत का इस्तेहाज़ा –ए- मुतवस्सेता कसीरा में बदल जाये तो नमाज़ को तोड़ कर इस्तेहाज़ा-ए कसीरा के लिए ग़ुस्ल करे और दूसरे काम अंजाम दे फिर उसी नमाज़ को पढ़े। अगर ग़ुस्ल के लिए वक़्त न हो तो तयम्मुम करे, और वुज़ू भी करे और अगर वुज़ू के लिए भी वक़्त न हो तो एक तयम्मुम वुज़ू के बदले करे और अगर तयम्मुम के लिए भी वक़्त न हो तो नमाज़ को न तोड़े बल्कि उसे पूरा करे और एहतियाते वाजिब की बिना पर बाद में उसकी क़     ज़ा भी करे। इसी तरह अगर नमाज़ पढ़ते वक़्त इस्तेहाज़ा -ए- क़लीला मुतवस्सेता या कसीरा में बदल जाये तो उसका भी यही हुक्म है। लेकिन अगर इस्तेहाज़ा मुतवस्सेता था तो ग़ुस्ल के अलावा वुज़ू भी करना होगा।

419  अगर नमाज़ के दौरान ख़ून आना बंद हो जाये और औरत को यह न पता हो कि अन्दर से भी बंद हो गया है या नही तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ग़ुस्ल, वुज़ू और नमाज़ को दोबारा अंजाम देना चाहिए।

420  अगर मुस्तेहाज़ा -ए- कसीरा मुतवस्सेता हो जाये पहली नमाज़ के लिए कसीरा वाले अहकाम और बाद की नमाज़ के लिए मुतवस्सेता वाले अहकाम अंजाम दे। मसलन अगर ज़ोहर की नमाज़ से पहले इस्तेहाज़ा-ए- कसीरा मुतवस्सेता हो जाये तो ज़ोहर की नमाज़ के लिए ग़ुस्ल करे और अस्र व मगरिब व इशा की नमाज़ के लिए सिर्फ़ वुज़ू करे।

421 

अगर हर नमाज़ से पहले मुस्तेहाज़ा –ए-  कसीरा का ख़ून बंद हो जाये और दोबारा शुरू हो तो उसे हर नमाज़ से पहले एक ग़ुस्ल करना चाहिए।

422  अगर इस्तेहाज़ा -ए- कसीरा क़लीला में बदल जाये तो पहली नमाज़ के लिए कसीरा का अमल और दूसरी नमाज़ के लिए क़लीला का अमल अंजाम देना चाहिए। इसी तरह अगर इस्तेहाज़ा-ए-मुतवस्सेता क़लीला में बदल जाये तो पहली नमाज़ के लिए मुतवस्सेता का अमल और बाद की नमाज़ के लिए क़लीला का अमल अंजाम दे।

423  जो काम मुस्तेहाज़ा पर वाजिब हैं (यहाँ तक कि कपड़े या रूई का बदलना) अगर वह उनको तर्क करती है, तो उसकी नमाज़ बातिल है।

424 

अगर मुस्तेहाज़ा –ए- क़लीला नमाज़ के अलावा कोई ऐसा काम अंजाम देना चाहे जिसके लिए वुज़ू ज़रूरी हो मसलन क़ुरान के अलफ़ाज़ कतो छूना चाहे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसको वुज़ू करना चाहिए क्योंकि नमाज़ के लिए उसने जो वुज़ू किया था वह काफ़ी नही4 है।

425  मुस्ताहाज़ा औरत के मस्जिदुल हराम, मस्जिदे नबी में जाने, दूसरी मस्जिदों में ठहरने, वाजिब सजदों वाले सूरों को पढ़ने और शौहर के साथ हमबिस्तरी करने में कोई हरज नही है। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि इन कामों से पहले अपना वाजिब ग़ुस्ल अंजाम दे।

426 

अगर मुस्तेहाज़ा –ए- कसीरा नमाज़ के वक़्त से पहले क़ुरआन के अलफ़ाज़ को छूना चाहे तो उसे ग़ुस्ल करना चाहिए, लेकिन इस्तेहाज़ा –ए- मुतवस्सेता में अगर उस दिन का ग़ुस्ल कर लिया हो तो वुज़ू करना ही काफ़ी है।

427  मुस्तेहाज़ा औरत पर नमाज़े आयात वाजिब है और नमाज़े आयात पढ़ने के लिए वही काम अंजाम देने होंगे जो हर रोज़ की वाजिब नमाज़ पढ़ने के लिए अंजाम देने पड़ते हैं।

428  अगर हर रोज़ की वाजिब नमाज़ के वक़्त में मुस्तेहाज़ा पर नमाज़े आयात भी वाजिब हो जाये और वह उन दोनों को मिला कर पढ़ना चाहे तो उसे चाहिए कि नमाज़े आयात पढ़ने के लिए उन तमाम कामों को अंजाम दे जो नमाज़े यौमिया के लिए अंजाम देती है। वह एक ग़ुस्ल व वुज़ू से दोनों नमाज़े नही पढ़ सकती।

429  अगर मुस्तेहाज़ा औरत क़ज़ा नमाज़ें पढ़ना चाहे तो उसे हर नमाज़ के लिए वह तमाम काम अंजाम देने होंगे जो अदा नमाज़ के लिए अंजाम देती है।

430  अगर औरत जानती हो कि उससे निकलने वाला ख़ून ज़ख़्म का नही है और शरन हैज़ व निफ़ास के हुक्म में भी नही है, तो उसे इस्तेहाज़ा के अहकाम पर अमल करना चाहिए। यहाँ तक कि अगर उसे शक हो कि यह इस्तेहाज़ा का ख़ून है या कोई दूसरा ख़ून तो अगर उसमें इस्तेहाज़ा की निशानियाँ न भी पाई जाती हो तब भी एहतियाते वाजिब की बिना पर उसे इस्तेहाज़ा के काम अंजाम देने चाहिए।

हैज़

औरत के रहम से जो हर महीने कुछ दिनों तक ख़ून निकलता है उसे हैज़ कहते हैं और जिस औरत को यह ख़ून निकल रहा होता है उसे हाइज़ कहते हैं।

431  हैज़ का ख़ून अक्सर गाढ़ा, गर्म, तेज़ सुर्ख या सुर्ख सियाही लिए हुए होता है और दबाव के साथ हल्की सी जलन के साथ बाहर निकलता है।

432  सैदानियाँ क़मरी साठ साल के बाद और दूसरी तमाम औरतें क़मरी पचास साल के बाद यायसा हो जाती हैं। यानी इस मुद्दत के बाद उनको हैज़ का ख़ून नही आता।

433  अगर किसी लड़की को क़मरी नौ साल से पहले और औरत को यायसा होने के बाद ख़ून आये तो वह हैज़ नही है।

434  हामला या बच्चे को दूध पिलाने वाली औरत के लिए भी मुमकिन है कि हैज़ आ जाये।

435  जो लड़की यह न जानती हो कि अभी नौ साल की हुई है या नही अगर उसे कोई ख़ून आये और उसमें हैज़ की निशानियाँ न पाई जाती हों तो वह हैज़ नही है। यहाँ तक कि अगर उसमें हैज़ की निशानियाँ भी पाई जाती हों तब भी उसे हैज़ नही कहा जासकता।

436  अगर किसी औरत को शक हो कि अभी यायसा हुई है या नही और उसे कोई ऐसा ख़ून आये जिसके बारे में न जानती हो कि यह हैज़ है या कोई और ख़ून तो उसे इस पर बिना रखनी चाहिए कि अभी यायसा नही हुई है।

437  हैज़ की मुद्दत कम से कम तीन दिन और ज़्यादा से ज़्यादा दस दिन है। अगर कोई ख़ून तीन दिन से कम आये तो वह हैज़ नही है।

438  पहले तीन दिन ख़ून लगातार आना चाहिए, अगर दो दिन ख़ून आये तीसरे दिन बंद हो जाये और चौथे रोज़ फिर आये तो वह हैज़ नही है।

439  ज़रूरी नही है कि तीन दिन तक मुसलसल ख़ून बाहर आता रहे बल्कि अगर शुरू में ख़ून बाहर आ जाये और फिर फ़र्ज (योनी) में ख़ून रहे तो काफ़ी है। अगर तीन दिन के अर्से में थोड़ी देर के लिए ख़ून बंद हो जाये और यह मद्दत इतनी कम हो कि यह कहा जा सके कि तीन दिन तक फ़र्ज (योनी) में ख़ून था तो यह हैज़ ही होगा।

440  पहली और चौथी रात में ख़ून का आना ज़रूरी नही है, लेकि दूसरी और तीसरी रात में ख़ून बंद नही होना चाहिए। अगर पहले दिन सूरज निकलने से लेकर तीसरे दिन सूरज छुपने तक मसलसल ख़ून आता रहे या पहले दिन, दिन के बीच से ख़ून आना शुरू हो और चौथे रोज़ उसी वक़्त बंद हो और दूसरी व तीसरी रात में भी ख़ून बंद न हो तो हैज़ है।

441  अगर तीन दिन मुसलसल ख़ून आने के बाद बंद हो जाये और कुछ दिन बंद रहने के बाद फिर आने लगे और ख़ून के आने व बंद होनें की मुद्दत दस दिन से ज़्यादा न हो तो जिन दिनों में ख़ून बंद रहा है वह भी हैज़ के ही दिन हैं।

442  अगर ख़ून तीन दिन से ज़्यादा और दस दिन से कम आये और यह पता न हो कि यह हैज़ है या फ़ोड़े का ख़ून है और यह भी पता न हो कि फ़ोड़ा दाहिनी तरफ़ है यै बाईं तरफ़ तो अगर मुमकिन हो थोड़ी सी रूई फ़र्ज (योनी) में रख़ कर बाहर निकाले और देखे कि किस तरफ़ से ख़ून आ रहा है अगर बाईं तरफ़ से आरहा है तो ख़ूने हैज़ है और अगर दाहिनी तरफ़ से आरहा है तो फ़ोड़े का ख़ून है।

443  अगर ख़ून तीन दिन से ज़्यादा और दस दिन से कम आये और पता न हो कि यह हैज़ का ख़ून है या ज़ख़्म का, तो अगर पहले हाइज़ थी तो हैज़ है और अगर पहले पाक थी तो पाक क़रार दे। अगर भी पता न हो कि पहले हाइज़ थी या पाक तो, जो काम हाइज़ पर हराम हैं उन्हें तर्क करे और जो इबादते पाक औरतें करती हैं उन्हें अंजाम दे।

444  अगर किसी औरत को ख़ून आये और वह शक करे कि यह हैज़ है या निफ़ास तो ्गर उसमें हैज़ की निशानियाँ पाई जाती हैं तो उसे हैज़ क़रार दे।

445  अगर किसी औरत को ख़ून आये और उसे पता न हो कि यह बकारत का ख़ून है या हैज़ का तो उसे अपनी जाँच करनी चाहिए। इस तरह कि थोड़ीसी रूई अपनी शर्मगाह (योनी) में रख कर थोड़ी देर के बाद बाहर निकाले अगर ख़ून सिर्फ़ रूई के किनारों पर लगा हो तो वह ख़ून बकारत का होगा और अगर पूरी रूई ख़ून में भीगी होगी तो ख़ूने हैज़ का होगा।

446   अगर किसी को तीन दिन से कम ख़ून आये और बंद हो जाये और तीन के बाद दोबारा तीन दिन ख़ून आये तो दूसरा ख़ून हैज़ है और पहला ख़ून हैज़ के हुक्म में नही है।

हाइज़ के अहकाम

447 इज़ पर कुछ चीज़ें हराम है।

वह इबादतें जिनके लिए वुज़ू ग़ुस्ल या तयम्मुम की ज़रूरत होती है जैसे नमाज़, लेकिन वह इबादतें जिनके लिए वुज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम की ज़रूरत न हो उन्हे अंजाम देने में कोई हरज नही है। जैसे नमाज़े जनाज़ा।

वह तमाम काम जो मुजनिब पर हराम हैं।

फ़र्ज (योनी) के रास्ते से जिमाअ (मैथिन) करना कि यह मर्द व औरत दोनों के लिए हराम है। चाहे ख़तने की जगह तक ही अन्दर जाये और लमनी (वीर्य) भी न निकले। बल्कि एहतियाते वाजिब यह है कि ख़तने से कम मिक़दार में भी दाख़िल न करे। हाइज़ औरत की दुबुर में वती (गुदा मैथुन) करना, जबकि वह ऐसा कराने पर राज़ी हो, बहुत ज़्यादा मकरूह है।

448   दिनों में भी जिमाअ (संभोग) करना हराम है जो क़तई तौर पर औरत के हैज़ के दिन न हों, लेकिन शरअन उन्हें हैज़ के दिन क़रार दे रही हो। जिस औरत को दस दिन से ज़्यादा ख़ून आये और बाद में बयान होने वाले मसाइल की बिना पर अपनी आदत के दिनों को हैज़ क़रार दे, उसका शौहर उन दिनों में उससे हमबिस्तरी (संभोग) नही कर सकता।

449  अगर कोई अपनी हाइज़ बीवी के साथ क़ुबुल (योनी) के रास्ते जिमाअ (मैथुन) करे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसे कफ़्फ़ारा देना चाहिए और इसकी मिक़दार इस तरतीब से है।

औरत के हैज़ के दिन तीन हिस्सों में तक़सीम होंगे, अगर मर्द ने पहले हिस्से में जिमाअ (संभोग) किया है तो 18 नुख़ूद सोना, अगर दूसरे हिस्से में जिमाअ (संभोग) किया है, तो 9 नुख़ूद सोना और अगर तीसरे हिस्से में जिमाअ किया है तो साढ़े चार नुख़ूद सोना फ़क़ीर को देना होगा। मसलन अगर किसी औरत को छः दिन क़ून आता है और उसका शौहर उससे पहली दूसरी रात या दिन में जिमाअ करे तो उसे 18 नुख़ूद सोना देना होगा। अगर तीसरी, चैथी रात या दिन में जिमाअ करे तो 9 नुख़ूद और अगर पाँचवीं, छटी रात या दिन में जिमाअ करे तो साढ़े चार नुख़ूद सोना देना होगा।

450  अगर हाइज़ औरत के साथ दुबुर में वती (गुदा मैथुन) की जाये तो कोई कफ़्फ़ारा नही है।

451  अगर जिमाअ करने और फ़क़ीर को कफ़्फ़ारा देने के वक़्त में सोने की क़ीमत में फ़र्क़ आ जाये तो फ़क़ीर को वही क़ीमत दी जायेगी जो कफ़्फ़ारा देते वक़्त सोने की क़ीमत होगी।

452  अगर कोई अपनी बीवी से हैज़ की हालत में पहले, दूसरे और तीसरे तीनों हिस्सों में जिमाअ (संभोग) करे तो उसे तीनों कफ़्फ़ारे देने होंगे यानी उसे साढ़े इकत्तीस नुख़ूद सोना देना होगा।

453  अगदर इंसान हैज़ की हालत में जिमाअ करे और उसका कफ़्फ़ारा देने के बाद फिर जिमाअ (संभोग) करे तो उसे दोबारा कफ़्फ़ारा देना होगा।

454  अगर इंसान हैज़ वाली औरत से कई बार जिमाअ करे और उनके बीच में कोई कफ़्फ़ारा न दे तो एहतियाते वाजिब यह है कि हर जिमाअ (संभोग) के लिए एक कफ़्फ़ारा दे।

455  अगर मर्द को जिमाअ (संभोग) करते वक़्त पता चले कि औरत हाइज़ हो गई है तो उसे उससे फ़ौरन अलग हो जाना चाहिए, अगर अलग नही होगा तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसे कफ्फ़ारा देना होगा।

456  अगर कोई हाइज़ औरत से ज़िना (अनैतिक संभोग) करे या किसी नामहरम हाइज़ औरत को अपनी बीवी समझते हुए उससे जिमाअ (संभोग) करे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर कफ़्फ़ारा अदा करे।

457  अगर कोई कफ़्फ़ारा न दे सकता हो तो एक इंसान की ख़ुराक़ सदक़ा दे और अगर यह भी न कर सकता हो तो इस्तग़फ़ार करे।

458  हैज़ की हालत में औरत को तलाक़ देना बातिल है। इसका पूरा ज़िक्र तलाक़ के मसाइल में बयान होगा।

459  अगर औरत कहे कि मैं हाइज़ हूँ, या कहे कि मैं हैज़ से पाक हो गई हूँ, तो उसकी बात को क़बूल करना चाहिए।

460  अगर औरत नमाज़ पढ़ते वक़्त हाइज़ हो जाये तो उसकी नमाज़ बातिल है।

461  अगर औरत नमाज़ की हालत में शक करे कि मैं हाइज़ हुई हूँ या नही तो उसे चाहिए कि अपने शक की परवा  न करे और नमाज़ को तमाम करे। लेकिन अगर नमाज़ के बाद पता चले कि नमाज़ पढ़ते हुए हाइज़ हो गई थी तो जो नमाज़ पढ़ी है वह बातिल है।

462   जब औरत को हैज़ का ख़ून आना बंद हो जाये तो उस पर वाजिब है कि नमाज़ और उन दूसरी इबादतों को अंजाम देने के लिए जिनके लिए वुज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम की ज़रूरत होती है, ग़ुस्ल करे। यह ग़ुस्ल, ग़ुस्ले जनाबत की तरह है, ग़ुस्ले जनाबत की तरह ग़ुस्ते हैज़ के बाद भी वुज़ू की ज़रूरत नही है। लेकिन बेहतर यह है कि नमाज़ पढ़ने के लिए ग़ुस्ल से पहले या ग़ुस्ल के बाद वुज़ू भी कर लिया जाये। अगर ग़ुस्ल से पहले वुज़ू किया जाये तो अफ़ज़ल है।

463  हैज़ का ख़ून बंद होने के बाद औरत को तलाक़ देना सही है चाहे उसने ग़ुस्ल न किया हो और उसका शौहर उससे जिमाअ भी कर सकता है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि ग़ुस्ल करने से पहले उसके साथ जिमाअ करने से परहेज़ किया जाये। लेकिन वह दूसरे काम जो हैज़ की हालत में उस पर हराम थे जैसे क़ुरआन के अलफ़ाज़ को छूना, मस्जिद में ठहरना वगैरह, उस पर उस वक़्त तक हलाल नही होंगे जब तक गुस्ल न करले।

464  अगर ग़ुस्ल के लिए पानी कम हो लेकिन उससे वुज़ू किया जा सकता हो तो ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करना चाहिए और उस पानी से वुज़ू कर लेना चाहिए। अगर पानी इतना कम हो कि उससे वुज़ू भी न किया जा सकता हो तो दो तयम्मुम करने चाहिए एक ग़ुस्ल के बदले और दूसरा वुज़ू के बदले।

465  जो नमाज़े हैज़ की हालत में छूट गई हैं उनकी क़ज़ा नही है। लेकिन हैज़ की हालत में छुटने वाले वाजिब रोज़ों की क़ज़ा है।

466  जब नमाज़ का वक़्त हो जाये और यह ख़तरा हो कि अगर नमाज़ पढ़ने में देर की तो हैज़ शुरू हो जायेगा तो फ़ौरन नमाज़ पढ़नी चाहिए।

467  अगर औरत नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने के बाद नमाज़ न पढ़े और इतनी देर गुज़रने के बाद हाइज़ हो जाये, जितनी देर में एक नमाज़ के वाजिबात अदा किये जा सकते हों, तो उस पर उस नमाज़ की क़ज़ा वाजिब। लेकिन तेज़ और धीमे पढ़ने और दूसरी तमाम बातों को भी ध्यान में रखना होगा। मसलन जो औरत मुसाफ़िर न हो अगर अव्वले वक़्त नमाज़ न पढ़े और हाइज़ हो जाये तो उस पर इस नमाज़ की कज़ा उस वक़्त वाजिब है जब ज़ोहर के अव्वले वक़्त से इतना वक़्त गुज़र जाये जिसमें चार रकत नमाज़ पढ़ी जा सकती हो। मुसाफ़िर औरत पर उस वक़्त कज़ा वाजिब होगी जब अव्वले ज़ोहर से इतना वक़्त गुज़र जाये जिसमें दो रकत नमाज़ पढ़ी जा सकती हो, इसके साथ साथ दूसरी शर्तों को भी मद्दे नज़र रख़ा जायेगा। बस अगर अव्वले वक़्त से इतना वक़्त गुज़र जाये कि जिसमें नमाज़ के मुक़द्दमात को फ़राहम करके नमाज़ पढ़ी जा सकती हो और हाइज़ हो जाये तो उस नमाज़ की क़ज़ा वाजिब है, वरना वाजिब नही है।

468   अगर नमाज़ के आख़िरी वक़्त में औरत को हैज़ का ख़ून आना बंद हो जाये और नमाज़ के मुकद्दमात फ़राहम करने (मसलन लिबास आमादा करने या उसको धोने) और एक रकत या उससे ज़्यादा नमाज़ पढ़ने का वक़्त बाक़ी हो तो नमाज़ पढ़नी चाहिए और अगर न पढ़े तो उसकी क़ज़ा वाजिब होगी।
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